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प्रस्तावना
यह प्रमाण है और यह फल, इस प्रकारका भेद-व्यवहार नहीं हो सकता। और सर्वथा भेद माननेपर आत्मान्तरके प्रमाण और फलकी तरह उनमें प्रमाणफलव्यवहार नहीं हो सकता । ज्ञानको अभिन्न निरंश मानकर अप्रमाणव्यावृत्तिसे कल्पित प्रमाण व्यवहार तथा अफलव्यावृत्तिसे उसमें कल्पित फलव्यवहार करना उचित नहीं है। क्योंकि जिस तरह प्रकृतप्रमाण या फल अप्रमाण या अफलसे व्यावृत्त हैं उसी तरह वे प्रमाणान्तर और फलान्तरसे भी व्यावृत्त हैं अतः उनमें अप्रमाण और अफल व्यवहार भी होना चाहिए। यदि ज्ञान सर्वथा निरंश है तो उसमें तदाकारताको प्रमाण और अधिगमरूपताको फल कहनेकी व्यवस्था भी कैसे बन सकती है ? अतः प्रमाण और फलमें एक आत्माकी दृष्टिसे अभेद और क्रिया और करण पर्यायकी दृष्टिसे भेद मानना ही प्रतीति-सिद्ध है।
प्रमेयमीमांसा तत्त्व और द्रव्य-जैन परम्परामें पदार्थोंका विचार दो दृष्टियोंसे किया जाता है। एक तो वह दृष्टि जिसमें मुमुक्षुके लिए मोक्षमार्गोपयोगी पदार्थोंका विचार किया जाता है। दूसरी वह दृष्टि जिसमें परमार्थसत्, मौलिक पदार्थोंका विचार होता है। मुमुक्षके लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह अपनी मोक्ष साधनाके लिए सभी पदार्थोंका ज्ञान अवश्य करे। उसके लिए जिनके ज्ञान की नितान्त आवश्यकता है उन्हें तत्व शब्दसे कहा गया है। मुमुक्षुको चूंकि मोक्षकी इच्छा है अतः सर्वप्रथम उसे मोक्ष तो समझ ही लेना चाहिए। मोक्ष बन्धनसे छूटनेको कहते हैं। किससे बँधा है यह जाने बिना उसका प्रयास सटीक नहीं हो सकता । बन्धन दोमें होता है। 'कौन किससे बँधा है और क्यों बंधा है ?' इस प्रश्नकी मीमांसामें बंधनेवाला आत्मा, जिससे बँधा है वह पुद्गल और जिन कारणोंसे बँधा है वह आस्रव अवश्य ज्ञातव्यकोटिमें आ जाते हैं। आत्मा स्वभावतः अनन्तज्ञान, दर्शन, सुख आदिका अखण्ड आधार है। वह अनादिसे अपने राग द्वष मोह आदि विकारोंके कारण नवीन-नवीन कर्म स्कन्धोंको खींचता है और उनसे बँधता चला जाता है। जब उसे "मैं एक स्वतन्त्र द्रव्य हूँ, दूसरी आत्माओंसे या अनन्त भौतिक पुद्गल द्रव्योंसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है, मैं अपने गुण पयार्यों का स्वामी हूँ, न मैं उनका हूँ और न वे मेरे हैं, अपनी विभावपरिणतिके कारण मैं कर्मोंसे बँध गया हूँ, और अपने ही तत्त्वज्ञान और स्वभावपरिणतिसे मुक्त भी हो सकता हूँ" यह तत्त्वज्ञान होता है तब वह मिथ्यात्वादि आस्रवोंको रोककर संवर अवस्थाको प्राप्त होता है, और तप ध्यान आदि चारित्र परिणतिसे पूर्व संचित कर्मोकी क्रमशः निर्जरा करके समस्त कर्मोका नाश कर, मुक्त हो जाता है। इस मोक्षमार्गीय प्रक्रियामें बन्धन, बन्धनके कारण-आस्रव और मोक्ष तथा मोक्षके उपाय-संवर और निर्जरा, इन पाँच तत्वों में मुख्यतया जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योंका ज्ञान ही विवक्षित है। पुद्गलसे चूंकि आस्मा बँधा है और उसीके भेदविज्ञानसे वह उससे छूट सकता है अतः सात तत्वोंमें 'अजीव'के द्वारा प्रमुख रूपसे पुद्गलका ही निर्देश किया गया है, वैसे भेद-विज्ञानके लिए अन्य धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन चार अजीव द्रव्योंका सामान्य ज्ञान भी अपेक्षित हो सकता है पर तात्त्विक प्रक्रियामें इन द्रव्योंका कोई विशेष स्थान नहीं है। हाँ, आत्मा और परके भेद विज्ञानमें 'पर'के अन्तर्गत ये अवश्य हैं। मुमुक्षु इन सात तत्त्वोंका परिज्ञान करके अपनी साधना सफल कर सकता है।
बुद्धने निर्वाणके लिए जिन चार आर्य सत्योंका उपदेश दिया है उनमें दुःख बन्धस्थानीय है, समुदय आस्रवस्थानीय, निरोध मोक्षस्थानीय, और मार्ग संवर और निर्जराका स्थान लेता है। बुद्धने तृष्णा और अविद्याको बन्धका कारण बताया है,और दुःखको बन्धनरूप । जबतक चित्त सांसारिक स्कन्धोंसे बद्ध है तभीतक दुःख है। चित्त संततिका निरास्रव अर्थात् अविद्या और तृष्णासे शून्य हो जाना ही वस्तुतः मोक्ष या निर्वाण है। प्रदीप निर्वाणकी तरह चित्तसन्ततिके अस्तित्वका लोप मानना वस्तुस्थितिके विरुद्ध है। इन चार आर्यसत्योंमें बुद्धने आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्षका प्रतिपादन तो किया है पर उस मुख्य आत्मतत्त्वके विषयमें मौन ही रखा है जिसको बन्धन और मोक्ष होता है। उन्होंने