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प्रस्तावना
तात्पर्य है कि जो मनुष्य घटज्ञानके द्वारा घटको जानता है वह साथ ही साथ “घटज्ञानवान् अहम्" इस सहव्यवसायके द्वारा अपने स्वरूपको भी जान लेता है। इसी तरह जो व्यक्ति घट जाननेकी शक्ति रखनेवाले घटज्ञानका यथावत् स्वरूप परिच्छेद करता है वह घटको तो अर्थात् ही जान लेता है क्योंकि उस शक्तिका यथावत् विश्लेषणपूर्वक परिज्ञान विशेषणभूत घटको जाने बिना हो ही नहीं सकता । इसी प्रकार आत्मामें अनन्त ज्ञेयोंके जाननेकी शक्ति है अतः जो संसारके अनन्त ज्ञेयोको जानता है वह अनन्त ज्ञेयोंके जाननेकी शक्तिके आधारभूत आत्मा या पूर्णज्ञानको स्वसंवेदन प्रत्यक्षके द्वारा जान लेता है और जो अनन्त ज्ञयोंके जाननेकी अनन्तशक्ति रखनेवाले आत्मा या पूर्णज्ञानके स्वरूपको यथावत् विश्लेषणपूर्वक जानता है. वह उन शक्तियोंके उपयोगस्थानभूत अनन्त पदार्थोंको भी जान लेता है जैसे जो व्यक्ति घटप्रतिबिम्बाक्रान्त दर्पणको जानता है वह घटको भी जानता है तथा जो घटको जानता है वही दर्पणमें आये हए घट-प्रतिबिम्बका विश्लेषणपूर्वक यथावत् परिज्ञान कर सकता है। कुन्दकुन्दने नियमसारमें सर्वज्ञताविषयक अपना दृष्टिकोण निश्चय और व्यवहारनयकी दृष्टिसे इस प्रकार बताया है
"जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणपण केवली भगवं ।
केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं ॥१५८॥" अर्थात् केवली भगवान् व्यवहारनयसे संसारके सब पदार्थोको जानते और देखते हैं, पर निश्चयसे केवलज्ञानी अपनी आत्माको जानता और देखता है। इसका तात्पर्य है कि ज्ञानको परपदार्थोंका जाननेवाला और देखनेवाला कहना भी व्यवहारकी मर्यादामें है, निश्चयसे तो वह स्वरूप-निमग्न रहता है। निश्चयनयकी भूतार्थता और परमार्थता तथा व्यवहारनयकी अभूतार्थताको सामने रखकर यदि विचार किया जाय तो आध्यात्मिक दृष्टिसे पूर्णज्ञानका पर्यवसान आत्मज्ञानमें ही होता है। आचार्य कुन्दकुन्दका यह वर्णन वस्तुतः क्रान्तदर्शी है।
तर्कयुगमें कुन्दकुन्दकी आध्यात्मिक या नैश्चयिक दृष्टिका जैसा चाहिए वैसा उपयोग नहीं हुआ। समन्तभद्रादि आचार्योंने सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती समस्त अतीन्द्रिय पदार्थोंका प्रत्यक्षत्व अनुमेयत्व' हेतसे सिद्ध किया है। आचार्थ वीरसेनने जयधवलामें केवलज्ञानको आत्माका स्वभाव मानकर मति. ज्ञानादिको उसीका अंश बताया है और लिखा है कि मतिज्ञानादिके स्वसंवेदनके समय अंशी केवलज्ञानका भी अंशतः स्वसंवेदन हो जाता है जैसे पर्वतके एक हिस्सेको देखकर पूरे पर्वतका ज्ञान व्यवहारतः प्रत्यक्ष है उसी तरह केवल ज्ञान भी व्यवहारतः स्वसंवेदनसिद्ध है। इस तरह सभी जैन तार्किकोंने एक स्वरसे त्रिकाल-त्रिलोकवर्ती समस्त पदार्थों के पूर्णपरिज्ञानके अर्थ में सर्वज्ञताका समर्थन किया है । सर्वज्ञताके समर्थनके बाद पृथक् धर्मज्ञताके समर्थनकी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। प्रवचनकी प्रमाणताका आधार
यह तो ऊपरके विवेचनसे स्पष्ट हो जाता है कि आगम या प्रवचनकी प्रमाणताका आधार आप्तके गुण हैं। आप्तके गुण ही शब्दमें झलकते हैं। यद्यपि जैन-परम्परामें शास्त्रोंका प्रामाण्य प्रचलित है, पर उसका अन्तिम आधार पुरुषका निर्मल ज्ञान ही है। तीर्थकर तबतक तत्त्वका उपदेश नहीं करते जबतक उनमें वीतरागता और पूर्णज्ञानका विकास नहीं हो जाता। एक तीर्थकरको दूसरे तीर्थकरके आगमकी कोई आवश्यकता नहीं रहती क्योंकि वह स्वयं आगमका निर्माता होता है। यही कारण है कि प्रत्येक क्षयोपशमज्ञानवाला आचार्य अपने वचनोंकी परम्पराको सर्वज्ञमूलक सिद्ध करते हैं पर किसी सर्वज्ञको अपनी वचनपरम्परा इतर सर्वज्ञमूलक सिद्ध करते नहीं सुना । तीर्थंकरोंके वचन सूत्र रूप होते हैं। उनमें संक्षेपसे मूल सिद्धान्तोंका सूचन होता है। उन सिद्धान्तोंको द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की परिस्थितिके अनुसार कैसे जीवन व्यवहारमें लाया जाय यह विवेचना उत्तरकालीन आचार्योंके शास्त्रों में
१ "सूक्ष्मान्तरितदरार्थाः प्रत्यक्षा: कस्यचिद्यथा।
अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वसंस्थितिः ॥"-आप्तमी० श्लो० ५।