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________________ न्यायविनिश्चयविवरण तरह अन्य योगी भी सर्वज्ञ हो सकते हैं यदि वे रागादिमुक्तिकी तरह सर्वज्ञताके लिए भी यत्न करें। और जिनने वीतरागता प्राप्त कर ली है वे चाहे तो थोड़ेसे ही प्रयाससे सर्वज्ञ बन सकते हैं। शान्तरक्षित भी इसी तरह धर्मज्ञता-साधनके साथ ही साथ सर्वज्ञता सिद्ध करके इसे वे शक्तिरूपसे सभी वीतरागोंमें मानते हैं। प्रत्येक वीतराग जब चाहे तब किसी भी वस्तुको अनायास यथेच्छ जान सकता है। बुद्धने स्वयं अपनेको कभी सर्वज्ञ नहीं कहा। उन्होंने अनेक आत्मादि अतीन्द्रिय पदार्थोंको अव्याकृत कहकर उनके विषयमें मौन ही रखा है। पर उनका यह स्पष्ट उपदेश था कि धर्म या मार्गका पूर्ण और निर्मल साक्षात्कार हो सकता है। धर्म मात्र किसी पुस्तकविशेषसे ही जाननेकी चीज़ नहीं है। उन्होंने कभी अपनेको सर्वज्ञ भी कहा है तो मार्गज्ञ या धर्मज्ञके अर्थ में ही। उनका तो स्पष्ट उपदेश था कि मैंने तृष्णाक्षयके मार्गका साक्षात्कार किया है और उसे ही बताता हूँ।.... जैनतार्किकोंने प्रारम्भसे ही त्रिकाल त्रिलोकवर्ती यावज्ज्ञेयोंके प्रत्यक्ष दर्शनरूप अर्थ में सर्वज्ञता मानी है और उसका समर्थन भी किया है। बौद्ध परम्परामें जिस प्रकार धर्मज्ञताका और सर्वज्ञताका विश्लेषण करके धर्मज्ञतापर मुख्य भार दिया गया है उस तरह जैन परम्परामें केवल धर्मज्ञताका समर्थन न करके पूर्ण सर्वज्ञता ही सिद्ध की गई है। आचार्य कुन्दकुन्दने प्रवचनसार' में केवलज्ञानको युगपत् अनन्तपदार्थोंका जाननेवाला बताया है। वे आगे लिखते हैं- कि जो एकको जानता है वह सबको जानता है। इस आत्मज्ञानकी परम्पराकी झलक "यः आत्मवित् स सर्ववित्" इत्यादि उपनिषद्-वाक्यों में तथा “जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्व जाणइ से एगं जाणइ" इस आचाराङ्ग सूत्र (१२३) में पाई जाती है। कुन्दकुन्दने इसका व्याख्यान करते हुए आगे लिखा है कि जो त्रिकाल त्रिलोकवर्ती पदार्थोंको नहीं जानता, वह पूरी तरह एक द्रव्यको भी नहीं जानता । और जो अनन्त पर्यायवाले एक द्रव्यको नहीं जानता वह सबको कैसे जान सकता है ? इसका पुनः कालान्तरे तेषां सर्वज्ञगुणरागिणाम् । अल्पयत्नेन सर्वज्ञत्वस्य सिद्धिरवारिता ॥" प्र० वार्तिकाल० पृ० ३२९ । १ "स्वर्गापवर्गसम्प्राप्तिहेतुज्ञोऽस्तीति गम्यते। साक्षान्न केवलं किन्तु सर्वोऽपि प्रतीयते ॥"-तत्त्वसं० श्लो० ३३०९ । २ "यद्यदिच्छति बोदधुं वा तत्तद्वेत्ति नियोगतः । शक्तिरेवंविधा तस्य प्रहीणावरणो ह्यसौ । युगपत् परिपाट्या वा स्वेच्छया प्रतिपद्यते । लब्धशानं च सित्त्वो (?) हि सक्षणादिभिः प्रभुः ॥"-तत्त्वसं० श्लो० ३६२८-२९ । ३ "सह भयवं उप्पण्णणाणदरिसी सदेवासुरमाणुस्सलोगस्स आगदि गदिं चयणोववादं बंधमोक्खं इदिं टिठदिं जदि अणभागं तकं कलं मणं माणसियं भुत्तं कदं पडिसेविदं आदिकम्भं अरहकम्म सम्वलोए सव्वजीवे सब्वभावे समं जाणादि पस्सदि विहरदि त्ति ।"-प्रकृति अनु। “से भगवं अरहं जिणे केवली सम्वन्नू सव्वभावदरिसी सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स पज्जाए जाणह । तं. आगई गई ठिई चयणं उववा भुत्तं पीयं कडं पडिसेवियं आधिकम्म रहोकम्म लविवं कहियं मणो माणसियं सव्वलोए सव्वजीवाणं सव्वभावाइं जाणमाणे पासमाणे एवं च णं विहरह।" -आचा० श्रु० २ चू० ३। ४ "जं तकालियमिदरं जाणदि जुगवं समंतदो सव्वं । अत्थं विचित्त विसमं तं जाणं खाइयं भणियं ॥"-प्रव० १।४७ । ५ "जो ण विजाणदि जुगवं अत्थे तेकालिके तिहवणत्थे । णाएं तस्स ण सक्कं सपज्जयं दत्वमेकं वा ॥"-प्रव० ११४८ ६ “दव्यमणंतपज्जयमेकमणताणि दव्वजादाणि । ण वि जाणादि जदि जुगवं कध सो सव्वाणि जाणादि ॥"-प्र१० ११४९।
SR No.007280
Book TitleNyayvinischay Vivaran Part 02
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1954
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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