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न्यायविनिश्चयविवरण होती है। पर वह तभी प्रमाण है जब उसका मूलस्रोतसे विरोध न हो । साहित्य अपने युगका प्रतिबिम्ब होता है। वर्तमानकालीन साहित्यमें अतीतके अवशेष भी यत्र तत्र बिखरे रहते हैं। उत्तरकालीन आचार्योंके द्वारा समय-समयपर रचा हुआ विविध प्रकारका साहित्य अपने युगकी आवश्यकताओं और प्रभावोंसे अछूता नहीं है। इसलिए आगम-प्रमाणको समीक्षा करते समय उसके सर्वज्ञ मूलकत्वकी जाँचके साथ ही साथ हमें उसके ऐतिहासिक विकास और उस युगकी परिस्थितियोंकी भी समीक्षा करनी ही होगी। जैन-परम्पराके दार्शनिक साहित्यमें परपक्षके खण्डनके स्थल सम-विचारवाले दर्शनान्तरीय विचारोंसे परिपुष्ट हुए हैं तथा उसने अपने विचारोंसे अन्य साहित्यको एक हदतक प्रभावित भी किया है। एक मूल गुणोंकी संख्या और नामोंको ही ले लीजिए। आचार्य समन्तभद्रगने ५ अणुव्रत और मद्य मांस और मधुके त्यागको मूल गुण बताया जबकि अन्य आचार्योने ५ अणुव्रतोंकी जगह बड़, पीपड़, उमर, कठूमर
और पाकर इन पाँच फलोंके त्यागको मूल गुणोंमें शामिल किया। किसीने देवदर्शन, पानी छानना, जूआका त्याग, आदि भी मूल गुणोंमें गिनाये। तात्पर्य यह कि जिस युगमें जैसी आवश्यकता परिस्थितियोंके अनुसार उपस्थित हुई उस युगमें बने हुए शास्त्र उनके समाधानसे खाली नहीं हैं। इसीलिए शास्त्र अपने युगके निर्माणमें प्रमुख भाग लेते रहे। वे उस समय युगबाह्य नहीं हुए और यही कारण है कि ग्रन्थकारोंने अपनी समझके अनुसार अनेक ऐसे भी विधान किये जिनका मूल जैन संस्कृतिसे मेल बैठाना कठिन है। अतः प्रवचनकी प्रमाणताका विचार करते समय.हमें इन सभी बातोंकी समीक्षा कर लेनी चाहिए। वेदापौरुषेयत्व विचार
मीमांसक वेदको अपौरुषेय मानते हैं। उनका कहना है कि शब्दमें गुण और दोष वक्ताके अधीन हैं यह सर्वमान्य नियम है। और दोपोंके अभावसे जब प्रमाणता आती है तब हमें यह विचार कर लेना चाहिए कि दोषोंका अभाव कैसे हो ? गुण और दोष दोनोंका आधार पुरुष है । जहाँ गुणवान् वक्ता होता है वहाँ उसके गुणोंसे दोष हटा दिये जाते हैं और दोषोंके हट जानेपर शब्दमें प्रमाणता स्वतः आ जाती है। वक्ताके गुणोंसे हटाये गये दोषोंकी फिर शब्दमें संभावना नहीं रहती। दूसरा प्रकार यह भी है जहाँ वक्ता ही नहीं है वहाँ वक्ताके दोपोंकी संक्रान्ति शब्दमें हो ही नहीं सकती। यानी वेदका चूँकि कोई पुरुष कर्ता नहीं है इसलिए उसमें दोषोंकी कोई संभावना नहीं है, वह स्वतःप्रमाण है। लौकिक वचनोंमें वक्ताके गणसे दोषोंका अभाव होता है और वेदमें वक्ताके न होनेसे दोषोंकी आशंका ही नहीं रहती। यही कारण है कि मीमांसकने प्रामाण्यको “स्वतः” स्वीकार किया। धर्ममें वेदका स्वतःप्रामाण्य बना रहे इसके लिए उसे सर्वज्ञका निषेध करना पड़ा और पुरुषकी चरम शक्तिके विकासको रोक देना पड़ा। वैदिक वाक्योंकी परम्पराको अनादि-नित्य सिद्ध करनेके लिए उसे शब्दमात्रको नित्य और व्यापक मानना पड़ा । हम अपने तालु आदिके व्यापारसे जिन शब्दोंको उत्पन्न करते हैं, मीमांसकके मतसे वे शब्द पहलेसे ही मौजूद हैं। हमारे प्रयत्नने तो मात्र उनकी अभिव्यक्ति की है। वेदको अपौरुषेय सिद्ध करने के लिए "कर्ताका स्मरण नहीं है" यह हेतु भी दिया जाता है। इसी तरह "वेदाध्ययन-वाच्यत्व, कालत्व" आदि हेतुओंसे उसकी अपौरुषेयता साधनेका प्रयत्न किया गया है।
विचारणीय बात यह है कि मेघकी गड़गड़ाहट या विजलीकी कड़कड़ाहट जैसी निरर्थक ध्वनियाँ भले ही पुरुष प्रयत्नके बिना प्राकृतिक कारणोंसे ही उत्पन्न हो जायँ पर सार्थक छन्दोबद्ध पद, वाक्य और श्लोककी रचना पुरुष-प्रयत्न के बिना कैसे संभव है ? वैज्ञानिक कार्यकारणपरम्पराकी दृष्टिसे यह
१ "मद्यमांसमधुत्यागैः सहाणुव्रतपञ्चकम् ।
अष्टौ मूलगुणानाहुः गृहिणां श्रमणोत्तमाः ॥"-रत्नक ० श्लो० ६६ । २ "मद्यमांसमधून्युज्झेत् पञ्चक्षीरफलानि च ।"-सागारधर्मा० २।२ ३ देखो सागारधर्मामृत २।१८ ।