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प्रस्तावना
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लिए किसी अविनाभावी सामान्य नियमकी खोज करनी होगी। ऐसे ही नियम अनुमानके आधारसे बनते हैं । जगत्का समस्त व्यवहार या बृहस्पतिका अपने शिष्योंको उपदेश देना आदि परचैतन्यके निश्चयके बिना नहीं चलता और परचैतन्यका निश्चय प्रत्यक्षसे तो सम्भव ही नहीं है। वह तो व्यापार, वचन, चेष्टा आदिसे ही किया जाता है, अतः अविनाभावी चेष्टाओंसे पर-चैतन्यकी प्रतिपत्ति करना अनुमान ही तो है। शिष्योंको परलोक आदि अतीन्द्रिय पदार्थोंका निषेध भी अनुपलब्धि हेतुसे ही समझाया जाता है। यह भी अनुमानका ही एक प्रकार है। तात्पर्य यह कि प्रत्यक्षकी प्रमाणता, परचैतन्यकी प्रतिपत्ति और परलोकादिका निषेध यहाँ तक कि अनुमानकी प्रमाणताका निषेध भी अनुमानके बिना नहीं हो सकता।
अनुमानका विषय-बौद्ध', अनुमानका विषय कल्पित सामान्य मानते हैं। उनके मतसे सामान्य वस्तुभूत नहीं है। जिन वस्तुओंमें अतत्कारण व्यावृत्ति और अतस्कार्य व्यावृत्ति देखी जाती है उनमें बुद्धि अभेदका अध्यवसाय करके अनुगत ज्ञान कराने लगती है। जैसे खण्डी, मुण्डी, शाबलेय, बाहुलेय आदि गौ व्यक्तियाँ स्व-पूर्व गौका कार्य हैं और स्व-उत्तर गौके कारण हैं। यानी न तो वे अ-गौका कारण हैं और न अ-गौका कार्य । अतः यह अ-गौ कारणव्यावृत्ति और अ-गौ कार्य व्यावृत्ति जिन-जिनमें देखी जाती है उन उनमें "गौ, गौ" यह अनुगत प्रत्यय होता है। वस्तुतः अनेक गौओंमें रहनेवाला गोत्व नामका एक सामान्य नहीं है। उनमें भावात्मक सदृशपरिणामरूप सामान्य भी नहीं है। केवल व्यवहारी अतत्कार्य-कारण व्यावृत्ति रूप अपोहसे सामान्य व्यवहार निभा लेता है। चूंकि यह अपोह बुद्धि कल्पित है अतः उसे वस्तुतः सत् नहीं कह सकते। यदि वह वस्तुसत् होता तो स्वलक्षणकी तरह अनित्य और परमाणुरूप ही होता। ऐसी दशामें उससे व्यक्तियोंकी तरह अनुगतज्ञान नहीं हो सकता। ऐसे अवस्तुभूत सामान्यको विषय करनेपर भी अनुमान अप्रमाण नहीं होता क्योंकि अनुमानके द्वारा सामान्यका ग्रहण होनेपर भी उससे प्राप्ति तो स्वलक्षण वस्तुकी ही होती है। अतः प्राप्य स्वलक्षणकी अपेक्षा उसे प्रमाण कहा जाता है। विकल्प्य और प्राप्यमें एकत्वाध्यवसाय करके प्रवृत्ति हो जाती है। जैसे प्रत्यक्ष ज्ञानमें जिस वस्तु क्षणसे प्रत्यक्ष उत्पन्न होता है वह वस्तुक्षण प्रवृत्ति कालतक क्षणिक होनेसे ठहरता नहीं है फिर भी दृश्यक्षण और प्राप्यक्षणमें एक सन्तानकी दृष्टिसे एकत्वाध्यवसाय करके प्रवृत्ति और तन्मूलक-प्रामाण्य सम्भव है उसी तरह अनुमानमें विकल्प्य-अनुमेय और प्राप्यवस्तुसत् स्वलक्षणमें एकत्वाध्यवसाय करके अविसंवादित्व और प्रामाण्य आ जाता है। उपर्युक्त अपोहरूप-सामान्य ही शब्दका विषय होता है। ..
अकलङ्कदेवने (न्यायवि. परि० २) इसकी आलोचना करते हुए लिखा है कि विभिन्न दो व्यक्तियों में अनुगतरूपसे रहनेवाला नित्य एक सामान्य तो जैन भी नहीं मानते पर सदृशपरिणाम रूपसामान्यके माने बिना कल्पित अपोहकी व्यवस्था नहीं की जा सकती। यदि शाबलेय गौव्यक्ति बाहुलेय गौ-व्यक्तिसे उतनी ही भिन्न है जितनी कि अश्व-व्यक्तिसे, तो क्या कारण है कि शाबलेय और बाहुलेयमें ही अ-गौव्यावृत्ति मानी जाय अश्वव्यक्ति में नहीं, यदि अश्व व्यक्तिसे कुछ कम विलक्षणता गौ-व्यक्तियों में परस्पर है तो उसका ही यह अर्थ है कि उनमें ऐसी समानता है जो अश्वव्यक्तिमें नहीं पाई जाती। यह समानपरिणाम या सादृश्य ही सामान्य कहलाता है। यद्यपि यह सामान्य प्रत्येक व्यक्तिनिष्ठ है तथापि उसकी अभिव्यक्ति या व्यवहार दूसरी सजातीय व्यक्तिकी अपेक्षासे ही होता है। इसलिए उसे अनेकनिष्ठ कह देते हैं। यह तो प्रत्यक्षसिद्ध है कि वस्तुमें समान और असमान दोनों प्रकारके धर्म पाये जाते हैं। इन उभयविध धर्मोसे क्रमशः अनुगत और व्यावृत्त व्यवहार होता है। अन्य समानधर्मकी बात जाने दीजिए पर विभिन्न गौ व्यक्तियों में अनुगत व्यवहारका नियामक अगौव्यावृत्तिरूप सामान्य धर्म तो बौद्ध स्वयं स्वीकार करते ही हैं। जब वे स्वयं अपरापर क्षणोंमें सादृश्यके कारण एकत्व भान तथा सीपमें सादृश्यके ही कारण रजतभ्रम स्वीकार करते हैं तब अनुगत व्यवहारके लिए सादृश्यको
१ न्यायवि० १।१६, १७ ।