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________________ २० न्यायविनिश्चयविवरण विषयों में होती है और शास्त्रकार एक ही वस्तुको परस्परविरोधी रूपसे भी कथन कर जाते हैं । अतः ऐसे स्थल में इस हेत्वाभासकी सम्भावना है । 'अकलङ्कदेवने इसका विरुद्धहेत्वाभासमें अन्तर्भाव किया । जो हेतु विरुद्धका अव्यभिचारी अर्थात् विपक्षमें रहता है वह विरुद्ध हेत्वाभास ही होगा । अटकृत हेतु बन्दुकी टीका ( पृ० २०५ ) में एक षड्लक्षण हेतुवादीका मत आता है। उसने पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षव्यावृत्ति, अबाधितविषयत्व, असत्प्रतिपक्षत्व और ज्ञातत्व ये ६ लक्षण हेतुके बताये हैं । इनमें ज्ञातत्व नामके रूपका निर्देश होनेसे इस वादीके मतसे "अज्ञात" नामका हेत्वाभास भी फलित होता है। अकलङ्कदेवने इस अज्ञात हेत्वाभासका अकिञ्चित्करमें अन्तर्भाव किया है। और प्रकरणसमका जो कि दिग्नागके विरुद्धाव्यभिचारी जैसा है विरुद्ध हेत्वाभासमें अन्तर्भाव किया है । इस तरह अकलङ्कदेवने सामान्यरूपसे एक हेत्वाभास कहकर भी, विशेष रूपसे असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक और अकिञ्चित्कर इन चार हेत्वाभासोंका कथन किया 1 अकलङ्कदेवका अभिप्राय अकिञ्चित्कर हेत्वाभासको स्वतन्त्र हेत्वाभास माननेके विषय में सुदृढ़ नहीं मालूम होता । वे लिखते हैं कि सामान्यसे एक असिद्ध हेत्वाभास है । वही विरुद्ध असिद्ध और सन्दिग्ध के भेदसे अनेक प्रकारका हो जाता है । ये विरुद्धादि अकिञ्चित्करके विस्तार हैं। फिर लिखा है कि अन्यथानुपपत्ति रहित जितने त्रिलक्षण हैं उन्हें अकिञ्चित्कर कहना चाहिए । इससे ज्ञात होता है कि वे सामान्यसे हेत्वाभासोंकी असिद्ध या अकिञ्चित्कर संज्ञा रखना चाहते हैं । इसको स्वतन्त्र हेत्वाभास माननेका उनका आग्रह नहीं दिखता। यही कारण है कि उत्तरकालीन आचार्य माणिक्यनन्दीने अकिञ्चिकरका लक्षण और भेद कर चुकनेके बाद लिखा है कि इस हेत्वाभासका विचार हेत्वाभासके लक्षणोंके समय ही करना चाहिए शास्त्रार्थंके समय नहीं । उस समय तो इसका कार्य पक्षदोषसे ही किया है। I अनुमानकी आवश्यकता - दर्शनके क्षेत्रमें चार्वाक और तत्वोपप्लववादीको छोड़कर सभीने अनुमानको प्रमाण माना है । चार्वाक भी व्यवहारमें अनुमानकी उपयोगिता मानता है उसका अनुमानके निषेधसे इतना ही अर्थ है कि परलोकादि अतीन्द्रिय पदार्थोंमें उसकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती । उसने अनुमानका निषेध करते समय विशेष रूपसे यही लिखा है कि कितनी भी सर्तकतासे अनुमान क्यों न किया जाय किन्तु वह देशान्तर, कालान्तर और परिस्थितियोंकी भिन्नता के कारण व्यभिचारी देखा जाता है | अग्निसे उत्पन्न होनेवाला भी धुआँ, वामी में अग्निके अभाव में भी दिखाई देता है । कसैले आँचले देशान्तर में या द्रव्यान्तर के संयोगसे मीठे देखे जाते हैं। किसी देश में शिशपाकी लता भी होती है । अनन्त व्यक्तियोंकी देश - कालके अनुसार अनन्त परिस्थितियाँ होती हैं । अनन्त पदार्थ भी इसी तरह परिस्थितियोंके भेदसे अनन्तानन्त प्रकारके हैं। इनमें किसी एक अव्यभिचारी नियमका बनाना अत्यन्त कठिन है । पदार्थ की सामान्य रूपसे सिद्धि करनेमें सिद्धसाधन है और विशेषमें अनुगम नहीं देखा जाता और तद्वद् - विशेषोंके सम्बन्ध ग्रहण करनेमें पुरुषकी आयु ही समाप्त हो जायगी । इतनी सब कठिनाइयोंके रहनेपर भी अनुमानकी प्रमाणतासे इनकार नहीं किया जा सकता । प्रत्यक्षकी प्रमाणताका समर्थन अनुमान के बिना नहीं हो सकता। इसमें अविसंवादी या अगौणत्व हेतुसे एक प्रत्यक्ष व्यक्तिमें प्रमाणता देखकर तादृश समस्त प्रत्यक्ष व्यक्तियोंको प्रमाण माननेकी पद्धति स्वीकार करनी ही होगी । जहाँ अनुमान करनेवालेकी असावधानीसे ग़लत जगह सम्बन्ध मान लिया जाता है या ग़लत हेतुका प्रयोग हो जाता है वहाँ उसके अपराधसे अनुमान मात्रको अप्रामाणिक नहीं कहा जा सकता । बहुतसे प्रत्यक्ष भी सदोष हेतुओं से उत्पन्न होनेके कारण सन्दिग्ध और विपर्यस्त होते हैं, पर इतने मात्रसे निर्दुष्ट प्रत्यक्षों को उसी अप्रमाण कोटिमें शामिल नहीं किया जा सकता । अतः ज्ञानकी स्थिति जब प्रमाणता और अप्रमाताके झूले में झूलती रहती है तब किसी ज्ञानमें प्रमाणता और किसीमें अप्रमाणताके निश्चय करनेके १ प्रमाणसं ० श्लो० ४७ । २ प्रमाणसं० इलो० ४९ । ३ न्यायवि० २।१९७-९८ । ४ परीक्षामुख ६।३९ |
SR No.007280
Book TitleNyayvinischay Vivaran Part 02
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1954
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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