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प्रस्तावना
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५ सहचर कार्यानुपलब्धि-आत्मा नहीं है, व्यापार आकार विशेष तथा वचन विशेषकी अनुप
लब्धि होनेसे ।
६ सहचरकारणानुपलब्धि- आत्मा नहीं है, उसके द्वारा आहार ग्रहण करना नहीं देखा जाता । सजीव शरीर ही स्वयं आहार ग्रहण करता है ।
सद्व्यवहार के निषेधके लिए ३ उपलब्धियाँ
१ स्वभाव विरुद्धोपलब्धि- पदार्थ नित्य नहीं है, परिणामी होने से ।
२ कार्यविरुद्धोपलब्धि-लक्षणविज्ञान प्रमाण नहीं है, विसंवादी होने से ।
३ कारणविरुद्धोपलब्धि- इस व्यक्तिको परीक्षाका फल प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि इसने अभावैग्रहण किया है ।
हेत्वाभास - नैयायिक हेतुके पाँच रूप मानते हैं अतः उनके मतसे एकएक रूपके अभावमें असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक, कालात्यापदिष्ट और प्रकरणसम ये ५ हेत्वाभास होते हैं । बौद्धने हेतुकी रूप्य माना अतः वह पक्षधर्मत्व अभावमै असिद्ध, संपक्षसत्वके अभाव में विरुद्ध और विपक्षाद्व्यावृत्तिके अभाव में अनैकान्तिक ये तीन हेत्वाभास मानता है ।
अकलङ्कदेवने चूँकि अन्यथानुपपत्ति लक्षण हेतु एक प्रकारका ही माना है अतः उनके मतसें अन्यथानुपपत्तिके अभाव में हेतुकी तरह मालूम होनेवाला हेत्वाभास भी सामान्यतया एक ही प्रकारका है और उसका नाम है असिद्ध ' ।
चूँकि अन्यथानुपपत्तिका अभाव अनेक प्रकारसे होता है। अतः हेत्वाभास भी असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक और अकिंचित्करके भेदसे चार प्रकारका है। उनके लक्षण इस प्रकार हैं—
१ असिद्ध
'सर्वथात्ययात्' अर्थात् सर्वथा पक्षमें न पाया जानेवाला, अथवा जिसका साध्यसे अविनाभाव न हो वह असिद्ध है जैसे-शब्द अनित्य है चाक्षुष होने से ।
२ विरुद्ध
'अन्यथाभावात्' अर्थात् साध्यके अभाव में पाया जानेवाला । जैसे- सब पदार्थ क्षणिक हैं सत् होनेसे । सव हेतु सर्वथा क्षणिकत्वके विरुद्ध कथञ्चित् क्षणिकत्वसे व्याप्ति रखता है अतः विरुद्ध है । ३ अनैकान्तिक–
'अन्यथापि भावात्' अर्थात् पक्ष और सपक्षकी तरह विपक्षमें भी पाया जानेवाला । जैसे- सर्वशाभाव सिद्ध करनेके लिए प्रयुक्त वक्तृत्व आदि हेतु असर्वज्ञकी तरह सर्वज्ञमें भी पाये जाते हैं। यह निश्चितानैकान्तिक, सन्दिग्धानैकान्तिक आदिके भेदसे अनेक प्रकारका है ।
४ अकिञ्चित्कर
सिद्ध और प्रत्यक्षादि बाधित साध्य में प्रयुक्त हेतु अकिञ्चित्कर होता है । अथवा अन्यथानुपपत्ति से रहित जितने भी हेतु हैं वे सभी अकिञ्चित्कर हैं ।
"दिग्नागाचार्यने विरुद्धाव्यभिचारी नामका भी एक हेत्वाभास माना है । परस्पर बिरोधी दो हेतुओंका एकधर्मी में प्रयोग होनेपर, प्रथम हेतु विरुद्धाव्यभिचारी हो जाता है। यह संशयहेतु होनेसे त्वाभास है । 'धर्मकीर्ति इसे हेत्वाभास नहीं मानते। वे लिखते हैं कि जिस हेतुका त्रैरूप्य प्रमाणसे सिद्ध है उसका विरुद्धसे त्रैरूप्य रखनेवाला कोई हेतु हो ही नहीं सकता। जैसे- जिस हेतुका नित्यत्व के साथ रुप्य निश्चित है उसका अनित्यत्वके साथ त्रैरूप्य नहीं हो सकता । अतः आगमाश्रित हेतुमें इसकी प्रवृत्ति मानकर आचार्यके वचनकी सङ्गति लगा लेनी चाहिए। क्योंकि शास्त्रकी प्रवृत्ति अतीन्द्रिय
१ न्यायवि० श्लोक २।१९७ ।
२ देखो न्यायवि० ३।१२ । ३ न्यायवि० ३।१२ ।