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________________ न्यायविनिश्चयविवरण को नीचा देखकर दूसरे पलड़ेके ऊँचे होनेका अनुमान, रस चखकर रूपका अनुमान और सास्नासे गौका अनुमान सहचरहेतुसे होते हैं। इनमें अपने साध्योंके साथ न तो तादात्म्य सम्बन्ध है और न तदुत्पत्ति ही। अनुपलब्धि-बौद्ध दृश्यानुपलब्धिसे अभावकी सिद्धि मानते हैं। दृश्यसे उनका तात्पर्य ऐसी वस्तुसे है जो वस्तु सूक्ष्म, अन्तरित और विप्रकृष्ट-दूरवर्ती न हो तथा प्रत्यक्षका विषय हो सकती हो। ऐसी वस्तु उपलब्धिके समस्त कारण मिलनेपर अवश्य ही उपलब्ध होती है। उपलब्धिके अन्य समस्त कारण रहनेपर भी यदि वह वस्तु उपलब्ध न हो तो उसका अभाव समझना चाहिए। सूक्ष्मादि पदार्थों में हमलोगोंके प्रत्यक्ष आदिकी निवृत्ति होनेपर भी उनका अभाव नहीं माना जा सकता। प्रमाणसे प्रमेयकी सिद्धि तो होती है पर प्रमाणाभावसे प्रमेयका अभाव नहीं किया जा सकता। अतः अदृश्य पदार्थकी अनुपलब्धि संशयका हेतु होनेसे अभावको सिद्ध नहीं कर सकती। अकलङ्कदेवने इसकी समीक्षा करते हुए लिखा है कि दृश्यत्वका अर्थ केवल प्रत्यक्षविषयत्व ही नहीं लेना चाहिए किन्तु उसकी सीमा प्रमाणविषयत्व तक करना चाहिए। इसका फलितार्थ यह है कि जो वस्तु जिस प्रमाणका विषय है वह यदि उसी प्रमाणसे उपलब्ध न हो तो उसका अभाव सिद्ध होगा । मृत शरीर में स्वभावसे अतीन्द्रिय परचैतन्यका अभाव हम व्यापार वचन आदि चेष्टाओंका अभाव देखकर ही करते हैं। यहाँ चैतन्यमें प्रत्यक्षविषयत्व रूप दृश्यत्व तो नहीं है, क्योंकि परचैतन्य हमारे प्रत्यक्षका विषय कभी नहीं होता। जिन चेष्टाओंसे उसका अनुमान किया जाता है उन्हींका अभाव देखकर उसका अभाव सिद्ध करना न्यायप्राप्त है। यदि अदृश्यानुपलब्धि एकान्ततः संशय हेतु हो तो मृत शरीरमें चैतन्यकी निवृत्तिका संदेह सदा बना रहेगा। ऐसी हालतमें दाहसंस्कार करनेवालोंको हिंसाका पाप लगना चाहिए । हाँ, जिन पिशाचादिकोंका सद्भाव हम किसी भी प्रमाणसे न जान सके ऐसे सर्वथा अदृश्य-प्रमाणागम्य पदार्थोका अभाव अनुपलब्धिसे नहीं किया जा सकता। अतः जिस वस्तुको हम जिन जिन प्रमाणोंसे जानते हैं उस वस्तुका उन उन प्रमाणोंके अभावमें अवश्य ही अभाव सिद्ध किया जा सकता है। अकलङ्कदेवने प्रमाण संग्रह (पृ० १०४-५)में सद्भाव साधक ९ उपलब्धियोंको तथा अभावसाधक ६ अनुपलब्धियोंको कण्ठोक्त कहकर शेष अनुपलब्धिके भेद-प्रभेदोंका इन्हींमें अन्तर्भाव किया है। वे इस प्रकार हैं १ स्वभावोपलब्धि-आत्मा है उपलब्ध होनेसे। २ स्वभावकार्योपलब्धि-आत्मा थी. स्मरण होनेसे। ३ स्वभावकारणोपलब्धि-आत्मा होगी सत् होनेसे । ४ सहचरोपलब्धि-आत्मा है, स्पर्शविशेष (शरीरमें उष्णताविशेष) पाये जानेसे । ५ सहचरकार्योपलब्धि-काय-व्यापार हो रहा है, वचन-प्रवृत्ति होनेसे । ६ सहचरकारणोपलब्धि-आत्मा सप्रदेशी है, सावयव शरीरके प्रमाण होनेसे। असद्व्यवहार साधनके लिए ६ अनुपलब्धियाँ१ स्वभावानुपलब्धि-क्षणक्षयैकान्त नहीं है, अनुपलब्ध होनेसे । २ कार्यानुपलब्धि-क्षणक्षयैकान्त नहीं है, उसका कार्य नहीं पाया जाता। ३ कारणानुपलब्धि-क्षणक्षयकान्त नहीं है, उसका कारण नहीं पाया जाता। ४ स्वभावसहचरानुपलब्धि-आत्मा नहीं है, रूपविशेष (शरीरमें आकारविशेष) नहीं पाया जाता। १ न्यायवि० २।२६ । २ लघी० श्लो० १५। ३ अष्टश, अष्टसह पृ० ५२!
SR No.007280
Book TitleNyayvinischay Vivaran Part 02
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1954
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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