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________________ प्रस्तावना किया है। पर इस तरहका परम्पराश्रित लम्बा प्रयास करनेसे पृथ्वी रूप धर्मीकी अपेक्षा महानसगत धूम हेतु समुद्र में भी अग्निसिद्ध करनेमें पक्षधर्मत्वरहित नहीं होगा। व्यभिचारी हेतुओंमें भी काल, आकाश पृथ्वी आदिकी अपेक्षा पक्षधर्मत्व घटाया जा सकेगा। यद्यपि व्याप्तिके बहिर्व्याप्ति, अन्तर्व्याप्ति और सकलव्याप्ति ये तीन भेद किये जाते हैं पर इनमें केवल अन्तर्व्याप्ति ही साध्यसिद्धिके लिए आवश्यक है। पक्षमें साध्य और साधनकी व्याप्तिको अन्तर्व्याप्ति कहते हैं । सपक्षमें साध्य-साधनकी व्याप्ति बहिर्व्याप्ति और पक्ष तथा सपक्ष दोनोंमें होनेवाली व्याप्ति सकलव्याप्ति कहलाती है।' अन्तर्व्याप्तिके असिद्ध रहनेपर बहिर्व्याप्ति निरर्थक है अतः बहिर्व्याप्तिका प्रयोजक-सपक्ष सत्त्व रूप भी अनावश्यक ही है। अतः पात्रकेसरी स्वामीने ठीक ही कहा है कि जहाँ अन्यथानुपपत्ति नहीं है वहाँ त्रैरूप्य माननेसे क्या और जहाँ अन्यथानुपपत्ति है वहाँ त्रैरूप्य माननेसे क्या ? पात्रकेसरी स्वामीकी यही अन्यथानुपपन्नत्व कारिका अकलङ्कदेवने न्यायविनिश्चयमें ले ली है। इसीका अनुकरण करके विद्यानन्द स्वामीने प्रमाणपरीक्षा (पृ. ७२) में लिखा है कि जहाँ अन्यथानुपपनत्व है वहाँ पञ्चरूप माननेसे क्या और जहाँ अन्यथानुपपन्नत्व नहीं है वहाँ पञ्चरूप माननेसे क्या ? बौद्ध' अविनाभावको तादात्म्य और तदत्पत्तिसे नियत मानते हैं। उनके मतसे हेतुके तीन भेद हैं-कार्यहेतु. स्वभावहेतु और अनपलब्धिहेत । इनमें स्वभावहेतु और कार्यहेतु विधिसाधक हैं तथा अनुपलब्धिहेतु निषेधसाधक । स्वभावहेतुमें तादात्म्य सम्बन्ध. कार्यहेतुमें तदुत्पत्ति सम्बन्ध और अनुपलब्धि हेतुमें यथासम्भव दोनों सम्बन्ध अविनाभावके प्रयोजक होते हैं। __ अकलकदेवने इसकी आलोचना करते हुए लिखा है कि जहाँ तादात्म्य और तदुत्पत्ति सम्बन्धसे हेतुमें गमकता देखी जाती है वहाँ अविनाभाव तो रहता ही है, भले ही वहाँ वह अविनाभाव तादात्म्य या तदुत्पत्ति प्रयुक्त हो, पर बहुतसे ऐसे भी हेतु हैं जिनका साध्यके साथ तादात्म्य या तदुत्पत्ति सम्बन्ध न होनेपर भी मात्र अविनाभावसे वे अपने नियत साध्यका ज्ञान कराते हैं, जैसे कृत्तिकोदय आदि पूर्वचर और उत्तरचर हेतु। कृत्तिकोदयसे अतीत भरणीके उदयका अनुमान तथा भविष्यत् शकटोदयका अव्यभिचारी अनुमान देखा जाता है। पर इनमें न तो तादात्म्य सम्बन्ध है और न तदुत्पत्ति ही। हेतुके भेद-अकलङ्कदेवने सामान्यतया हेतुके उपलब्धि और अनुपलब्धि ये दो भेद किये हैं। दोनों ही प्रकारके हेतु विधि और निषेध दोनोंको सिद्ध करते हैं । उपलब्धिके स्वभाव, कार्य, कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर ये ६ भेद हैं। १ स्वभावहेतु-यह वृक्ष है शिंशपा होमेसे । २ कार्यहेतु-पर्वतमें अग्नि है धूम होनेसे । ३ कारणहेतु-वृक्षसे छायाका ज्ञान और चन्द्रमासे जलमें पड़नेवाले उसके प्रतिबिम्बका ज्ञान कारणहेतु है । यद्यपि 'कारण अवश्य ही कार्योंको उत्पन्न करे' यह नियम नहीं है क्योंकि कारणोंकी सामर्थ्यमें रुकावट तथा सामग्रीके अन्तर्गत कारणान्तरोंकी विकलता देखी जाती है किन्तु ऐसे कारणसे जिसकी शक्ति में कोई प्रतिबन्ध न हो और कारणान्तरोंकी विकलता न हो. कार्यका अनुमान है है। अनुमान करनेवालेकी अशक्तिसे अनुमानको दोष नहीं दिया जा सकता। ४ पूर्वचर-कृत्तिका नक्षत्रका उदय देखकर 'एक मुहूर्तके बाद रोहिणीका उदय होगा' यह अनुमान पूर्वचरानुमान है। यहाँ कृत्तिकोदय और भावी शकटोदयमैं न तो तादात्म्य सम्बन्ध है और न कार्य-कारण भाव ही । अतः इसे पृथक हेतु ही मानना चाहिए। ५ उत्तरचर हेतु:-कृत्तिकाका उदय देखकर 'एक मुहूर्त पहले भरणीका उदय हो चुका है' यह अनुमान उत्तरचरानुमान है। ६ सहचर हेतु-चन्द्रमाके इस भागको देखकर उसके उस भागका अनुमान, तराजूके एक पलड़े १ प्रमाणसं० श्लो०५०। २ सिद्धिवि० टी० लि० हेतुलक्षणसिद्धि परि०। तत्त्व सं० का० १३६४ । ३ न्यायवि०२।२५
SR No.007280
Book TitleNyayvinischay Vivaran Part 02
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1954
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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