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न्यायविनिश्चयविवरण
व्यवहार बुद्धिकल्पित धर्मधर्मीन्याय से चलता है, किसी वास्तविक धर्मीकी सत्ता नहीं है । अकलङ्क देवने ( न्यायवि० २२) बताया कि जिस प्रकार प्रत्यक्ष वास्तविक परपदार्थका ग्राहक है उसी तरह अनुमान भी वस्तुभूत अर्थको ही विषय करता है । यह ठीक है कि प्रत्यक्ष उसे स्फुट और विशेषाकार रूपसे जाने और अनुमान उसे अस्फुट एवं सामान्याकार रूपसे, पर इतने मात्रसे एकको वस्तुविषयक और दूसरेको अवस्तुविषयक नहीं कहा जा सकता । एक ही सामान्यविशेषात्मक वस्तु है और वह पूरी की पूरी प्रत्यक्ष या अनुमान किसी भी प्रमाणकी विषय होती है ।
साध्य - साध्य अर्थात् सिद्ध करनेके योग्य । जो पदार्थ अभी तक असिद्ध है वही साध्यकोटिमें आता है। असिद्ध के साथ ही साथ साध्यको इष्ट और शक्य अर्थात् अबाधित भी होना चाहिए । जो वादीको इष्ट नहीं है वह साध्य नहीं हो सकता। इसी तरह जो प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, लोकप्रतीति और स्ववचन आदिसे बाधित है वह साध्य नहीं हो सकता। तात्पर्य यह कि इष्ट, अबाधित और असिद्ध साध्य होता है और अनिष्ट, बाधित और सिद्ध साध्याभास । इष्टका अर्थ 'उक्त' नहीं है अनुक्त भी पदार्थaratष्ट हो सकता है और साध्य बन सकता है ।
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साधन - जैनाचार्योंने प्रारम्भसे ही साधनका एक मात्र लक्षण माना है अविनाभाव या अन्यथानुपपत्ति | अविनाभाव अर्थात् विना-साध्यके अभाव में अ-नहीं भाव होना । याने साध्य के अभावमें नहीं होना । अन्यथानुपपत्ति इसीका नामान्तर है । यह अविनाभाव प्रत्यक्ष और अनुपलम्भसे होनेवाले तर्क नामके प्रमाणसे गृहीत होता है । यद्यपि बौद्धोंने भी अविनाभावको साधनका स्वरूप कहा है पर उसकी परिसमाप्ति के पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्व और विपक्षव्यावृत्ति में मानते हैं । यह त्रैरूप्य हेतुका स्वरूप है इसका विवरण करते हुए आचार्य धर्मकीर्ति' ने लिखा है कि लिङ्गकी अनुमेय में सत्ता ही होनी चाहिए, और सपक्षमें ही सत्ता तथा विपक्ष में असत्ता ही । इसकी आलोचना करते हुए अकलङ्कदेव ने लिखा है कि त्रैरूप्य में केवल विपक्ष व्यावृत्ति ही हेतुका लक्षण हो सकती है पक्षधर्मत्व और सपक्षसत्व नहीं । एक मुहूर्त के बाद रोहिणी नक्षत्रका उदय होगा क्योंकि इस समय कृत्तिकाका उदय है । इस पूर्वचरानुमानमें पक्षधर्मत्व नहीं है फिर भी अविनाभाव के कारण यह सद्हेतु है । इसी तरह 'सर्व' क्षणिकं सत्वात् ' बौद्धोंके इस प्रसिद्ध अनुमानमें सपक्षसत्त्व न रहनेपर भी गमकता स्वयं उन्होंने मानी है। अतः अविनाभाव ही एकमात्र हेतुका स्वरूप हो सकता है ।
नैयायिक (न्यायवा० १।१।५) त्रैरूप्य के साथ अबाधित-विपयत्व और असत्प्रतिपक्षत्वको भी हेतुका आवश्यक अङ्ग मानकर पञ्चरूपमें अविनाभावकी परिसमाप्ति करते हैं । इनमें अबाधितविषयत्वं तो पक्ष के अबाधित विशेषण से ही गतार्थ हो जाता है क्योंकि जिस हेतुका अविनाभाव प्रसिद्ध है उसके स्वरूपमें किसी प्रकारकी बाधाकी सम्भावना ही नहीं की जा सकती । अविनाभावी हेतुका समान बलशाली कोई प्रतिपक्षी भी सम्भव नहीं है अतः असत्प्रतिपक्षत्व रूप भी निरर्थक है । 'अद्वैतवादियों के प्रमाण हैं इष्टसाधन और अनिष्ट दूषण अन्यथा नहीं हो सकते' इस अनुमानमें पक्षधर्मत्व के अभाव में भी सत्यता है । क्योंकि इस अनुमानके पहिले प्रमाण नामकी वस्तु अद्वैतवादियोंके यहाँ प्रसिद्ध ही नहीं है, जिसमें रहकर हेतु पक्षधर्म वाला बनता ।
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अटकृत हेतुबिन्दुटीका ( पृ० २०५ ) में ज्ञातत्व और विवक्षतैकसंख्यत्व नामके अन्य दो रूपोंका भी पूर्वपक्ष के रूपमें उल्लेख मिलता है। इनमें ज्ञातत्व रूप इसलिए अनावश्यक है कि हेतु ज्ञात होकर ही साध्यका अनुमापक होता है। यह एक साधारण बात है । इसी तरह विवक्षितैकसंख्यत्व भी अपनी कोई विशेषता नहीं रखता । कारण अविनाभावी हेतुका द्वितीय प्रतिपक्षी सम्भावित ही नहीं है जो विवक्षित हेतुकी एक संख्याका विघटन करे । धर्मकीर्तिके टीकाकार कर्णकगोमी आदिने' रोहिणीके उदयका अनुमान करानेवाले कृत्तिकोदय हेतुमें काल या आकाशको धर्मी बनाकर पक्षधर्मत्व घटानेका प्रयास
१ न्यायवि० २।५।७ | २ लघी० श्लोक १३-१४, (अकलङ्कग्रन्थत्रय) ।
३ प्र० वा० स्ववृ० टी० पृ० ११ ।