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प्रस्तावना
३ तर्क
प्रत्यक्ष और अनुपलम्भसे उत्पन्न होनेवाला और साध्य-साधनके अविनाभाव सम्बन्धको ग्रहण करनेवाला ज्ञान तर्क है । संक्षेपमें व्याप्तिग्राही ज्ञानको तर्क कहते हैं। व्याप्ति सर्वोपसंहारवाली होती है। जो भी धूम है वह कालत्रय और त्रिलोकमें अग्निसे ही उत्पन्न होता है, अग्निके अभावमें कभी भी नहीं और कहीं भी नहीं हो सकता यह सर्वोपसंहारी अविनाभाव तर्क प्रमाणकी मर्यादामें हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण रसोईघर आदिमें अनेक वार धूम और अग्निके सम्बन्धका प्रत्यक्ष भले ही कर ले पर उस सम्बन्धकी त्रैकालिकता और सार्वत्रिकताका ज्ञान उसकी सीमामें नहीं है क्योंकि वह सन्निहित पदार्थको जानता है और अविचारक है। अनुमानके द्वारा इस अविनाभावका ग्रहण तो इसलिए सम्भव नहीं है कि की उत्पत्ति ही अविनाभावके ग्रहणके बाद होती है। एक अनुमानकी व्याप्ति यदि अनुमानान्तरसे गृहीत की जाय तो अनुमानान्तरकी व्याप्तिके लिए तृतीय अनुमानकी तथा तृतीय अनुमानकी व्याप्तिके लिए चतुर्थ अनुमानकी आवश्यकता होनेसे अनवस्था दूषण आता है।
बौद्ध निर्विकल्पक प्रत्यक्षके बाद उत्पन्न होनेवाले विकल्पक ज्ञानको व्याप्तिग्राही कहते हैं। किन्तु जब विकल्पक ज्ञान स्वयं अप्रमाण है तो उसके द्वारा गृहीत व्याप्तिमें कैसे विश्वास किया जा सकता है ? और यदि व्याप्तिग्राही विकल्प प्रमाण है तो उसे प्रत्यक्ष और अनुमानसे भिन्न तीसरा प्रमाण मानना होगा।
न्यायसूत्र (११)में तर्कको पृथक् पदार्थ मानकर भी उसे प्रमाण नहीं माना है। न्यायभाष्य (11)में लिखा है कि तर्क न तो प्रमाण है और न अप्रमाण । वह तो प्रमाणका अनुग्राहक है इसीलिए तत्वज्ञानके निमित्त उसकी कल्पना की जाती है किन्तु ऐसे किसी पदार्थसे जो स्वयं प्रमाण नहीं है प्रमाण का अनुग्रह कैसे हो सकता है ? तर्क स्वयं अविसंवादी है और अविसंवादी अनुमानका जनक भी, अतः वह स्वयं प्रमाण है। अग्नित्वेन समस्त अग्नियोंका और धूमत्वेन यावत् धूमोंका ज्ञान करके सामान्यलक्षणा प्रत्यासत्तिके द्वारा अलौकिक प्रत्यक्षसे व्याप्तिका ग्रहण मानना भी उचित नहीं है क्योंकि प्रत्यक्ष ज्ञान विशद होता है। एक अग्निके प्रत्यक्षके द्वारा उस अग्नि व्यक्तिका जैसा और जितना विशद प्रतिभास होता है वैसा और उतना तत्सदृश परोक्ष अन्य अग्नि व्यक्तियोंका नहीं । परोक्ष अग्नि और धूम व्यक्तियोंका ज्ञान अस्पष्ट होनेसे प्रत्यक्षकी सीमामें नहीं आ सकता और यदि सामान्यलक्षणा प्रत्यासत्तिके द्वारा रसोईघरकी अग्निकी तरह पर्वतकी अग्निका भी स्पष्ट प्रतिभास हो जाता है तो अविनाभाव सम्बन्धके ग्रहण करने की और अग्निके अनुमान करनेकी आवश्यकता ही नहीं रह जाती। एक अर्थमें तो व्याप्तिग्रहणकाल में सभी व्यक्तियोंको सर्वज्ञताका प्रसंग भी प्राप्त होता है। अतः सम्पूर्ण रूपसे साध्य और साधनों के सापसंहारी सम्बन्धको ग्रहण करनेवाले तर्कको स्वतंत्र प्रमाण मानना ही उचित है। यह तर्क साध्य साधन विषयक प्रत्यक्ष-उपलम्भ और साध्याभाव तथा साधनाभावविषयक अनुपलम्भसे उत्पन्न होता है। उपलम्भ अनुपलम्भ और सादृश्य प्रत्यभिज्ञान आदि तर्ककी सामग्री है। इस सामग्रीसे उत्पन्न होनेवाला व्याप्तिग्राही बोध अविसंवादी होनेसे स्वतंत्र प्रमाण है।
जिनमें परस्पर अविनाभाव नहीं है उनमें अविनाभावकी सिद्धि करनेवाला ज्ञान कुतर्क या तर्काभास है। जैसे विवक्षासे वचनोंका अविनाभाव जोड़ना, क्योंकि विवक्षाके अभावमें ही स्वप्नावस्था में वचन प्रयोग देखा जाता है तथा शास्त्रकी विवक्षा रहनेपर भी मूोके शास्त्र व्याख्यान रूप वचन नहीं देखे जाते । तात्पर्य यह है कि अव्यभिचारी अविनाभावको ग्रहण करनेवाला ही ज्ञान तर्क प्रमाण कहा जायगा, अन्य तर्काभास या कुतर्क । ४ अनुमान
अविनाभावी साधनसे साध्यके ज्ञानको अनुमान कहते हैं। साध्य ज्ञान ही साध्यसम्बन्धी अज्ञानका नाश करता है अतः साध्य सम्बन्धी प्रमितिमें साध्यज्ञान ही करण होनेसे अनुमान हो सकता है।
१ प्र० वा० मनोरथ० पृ० ७ ।