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________________ १२ न्यायविनिश्चयविवरण साक्षात् अर्थ से उत्पन्न नहीं होती अतः वह अप्रमाण है किन्तु अकलङ्कदेवने गृहीतग्राही होनेपर भी स्मृतिको अविसंवादिनी होनेके कारण प्रमाण स्वीकार किया है। अगृहीतग्राहित्व और गृहीतमाहित्व अप्रमाणता वा अप्रमाणताके प्रयोजक नहीं हो सकते । प्रमाणत्वका हेतु तो अविसंवाद ही है । वह अविसंवाद अन्य ज्ञानोंकी तरह स्मृतिमें विशेषतः सुरक्षित है । समस्त जगत् के व्यवहार स्मृतिमूलक ही हैं । फिर स्मृति में 'तत्' शब्दका उल्लेख होना अपूर्व है जो अनुभवमें नहीं पाया जाता । प्रत्यभिज्ञान, अनुमान और आगम आदि प्रमाणोंकी उत्पत्ति स्मृतिके बिना नहीं हो सकती अतः अविसंवादी प्रत्यभिज्ञान तर्क अनुमान और आगमका जनक होनेसे भी स्मृति प्रमाण है । जो स्मृति विसंवादिनी है उसे अप्रमाण कहनेका रास्ता खुला हुआ है । इसी तरह पदार्थ से उत्पन्न होना या न होना प्रमाणता और अप्रमाणताका प्रयोजक नहीं है क्योंकि ज्ञानके प्रति अर्थकी कारणता सार्वत्रिक नहीं है । अतः अविसंघादी है 1 होनेके कारण स्मृति स्वयं मुख्य प्रमाण २ प्रत्यभिज्ञान दर्शन और स्मरण से उत्पन्न होनेवाले एकत्व, सादृश्य, वैसादृश्य, प्रतियोगी और आपेक्षिक आदि रूपसे संकलन करनेवाले ज्ञानको प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । यद्यपि 'स एवायं' इस प्रत्यभिज्ञानके 'सः' इस अंशको स्मरण और 'अयं' इस अंशको प्रत्यक्ष जान लेता है फिर भी 'स एवायं' इस समग्र संकलित प्रमेयको न तो स्मरण ही जान सकता है और न प्रत्यक्ष । अतः वर्तमान प्रत्यक्ष और अतीत स्मरणमूलक जितने प्रकारके संकलन ज्ञान होते हैं वे सब प्रत्यभिज्ञान प्रमाणकी सीमा में हैं । अतीत और वर्तमानकी कड़ीको जोड़नेवाला एकद्रव्यगत एकत्व मुख्य रूपसे प्रत्यभिज्ञानका प्रमेय है । जिस एकत्वकी धुरीपर संसारके समस्त व्यवहार, यहाँ तक कि स्वयं अपनी जीवनस्थिति सुसंकलित होती है उसी एकत्वको प्रत्यभिज्ञान अविसंवादी रूपसे जानता है । कोई भी मौलिक पदार्थ पूर्व और उत्तर में विकलित पर्यायोंका ढेर नहीं है किन्तु उसके पूर्वोत्तर क्रममें एक मौलिकता है जो प्रतिक्षण परिवर्तन करनेपर भी उसकी सत्ताको न तो समाप्त होने देती है और न पदार्थान्तरसे संक्रान्त ही होने देती है । यही मौलिकता द्रव्य और धौव्य शब्दोंसे पकड़ी जाती है। क्षण परिवर्तन चक्र के बीच यह अविच्छिन्न धुरी द्रव्यका प्राण है, इसीके बलपर परिवर्तित द्रव्यमें 'स एवायम्' यह वही है ऐसा अविसंवादी प्रत्यभिज्ञान होता है । बन्धन-मोक्ष, लेन-देन, शब्दप्रयोग आदि समस्त व्यवहार इसीके आधारसे चलते हैं । अतः एकत्व प्रत्यभिज्ञान कथंचित् अपूर्वार्थग्राही और अविसंवादी होनेके कारण प्रमाण है । 'स एवायं' इस ज्ञानको इन्द्रियप्रत्यक्ष तो इसलिए नहीं कह सकते कि इन्द्रियाँ केवल सम्बद्ध और वर्तमान अर्थ को ही जानती हैं जब कि 'सः' अंश असम्बद्ध और अवर्तमान । इसी तरह 'सः' तक सीमित रहनेवाला स्मरण भी अतीत वर्तमानव्यापी एकत्वको स्पर्श नहीं कर सकता । 1 नैयायिक 'गोसदृशो गवय:' इस अतिदेश वाक्यको सुनकर सामने गवयके देखनेपर होनेवाले 'यह गवय शब्दका वाच्य है' इस प्रकारके संज्ञा-संज्ञी सम्बन्धको उपमान नामका स्वतन्त्र प्रमाण मानते हैं । किन्तु अकलङ्कदेवने प्रत्यक्ष और स्मरणमूलक यावत् संकलनोंको चाहे वे एकत्वविषयक, सादृश्यविषयक, वैसादृश्यविषयक, प्रातियोगिक या आपेक्षिक कैसे भी हों प्रत्यभिज्ञानमें अन्तर्भाव किया है । 'इसीलिए उन्होंने स्पष्ट लिखा है ' कि यदि 'गौके सदृश गवय होता है' इस सादृश्यप्रत्यभिज्ञानको स्वतन्त्र प्रमाण माना जाता है तो 'गौसे विलक्षण भैंस होती है' इस वैसादृश्य प्रत्यभिज्ञानको, 'पटनेसे कलकत्ता है' प्रातियोगिक प्रत्यभिज्ञानको 'आँवलेसे अमरूद बड़ा होता है' इस आपेक्षिक प्रत्यभिज्ञानको दूर इस तथा और भी इसके प्रत्यक्ष-स्मरणमूलक विभिन्न ज्ञानोंको स्वतन्त्र प्रमाण मानना होगा । १ “उपमानं प्रसिद्धार्थसाधर्म्यात् साध्यसाधनम् । द्वैधर्म्यात्प्रमाणं किं स्यात् संज्ञिप्रतिपादनम् ॥१९॥ इदमल्पं महद् दूरमासन्नं प्रांशु नेति वा । व्यपेक्षातः समक्षेऽर्थे विकल्पः साधनान्तरम् ||२१|| ” -लघी० ।
SR No.007280
Book TitleNyayvinischay Vivaran Part 02
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1954
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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