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________________ न्यायविनिश्चयविवरण नैयायिक "अनुमितिकरणम् अनुमानं" अनुमानकी यह व्युत्पत्ति करके लिङ्गपरामर्श ज्ञानको अनुमान कहते हैं। धूम अग्निसे व्याप्त है तथा वह धूम पर्वतमें हैं ऐसे व्याप्तिविशिष्ट पक्षधर्मता ज्ञानको परामर्श कहते हैं। वस्तुतः यह परामर्श उस अनुमान ज्ञानकी सामग्रीमें शामिल है, जिससे साध्यके अज्ञानकी निवृत्ति होती है। बौद्ध परम्परा' में भी इसीलिए अनुमेयज्ञानको अनुमान माना है। अनुमानके भेद-अनुमानके स्वार्थ और परार्थ ये दो भेद सभी वैदिक, बौद्ध और जैन तर्क ग्रन्थों में पाये जाते हैं । स्वार्थानुमान ज्ञानात्मक होता है। इसमें स्वयं दृष्ट लिङ्गसे साध्यज्ञान द्रष्टाको ही होता है। यद्यपि दृष्टाके ज्ञानमें साध्य-साधन आदिका भेद किया जा सकता है और उसके ज्ञानका शब्दों से उल्लेख करना भी सम्भव है परन्तु उसकी उत्पत्तिमें किसी दूसरेके शब्द कारण नहीं पड़ते इसीलिए उसे अशब्दात्मक कहते हैं। परार्थानुमान भी स्वार्थानुमानकी तरह यद्यपि ज्ञानरूप ही है परन्तु यह लिंग वाचक शब्दोंको सुनकर श्रोताको उत्पन्न होता है और इसका शब्दोंसे प्रकट निर्देश होता है, इसीलिए इसे शब्दात्मक कहते हैं । शब्द अचेतन हैं, अतः अज्ञानरूप होनेसे ये मुख्य प्रमाण नहीं हो सकते, फिर भी कारणमें कार्यका और कार्यमें कारणका उपचार करके इनमें ज्ञानरूप परार्थानुमानता आ जाती है। वक्ताका ज्ञान शब्दोंका उत्पादक है । जब उसका ज्ञान दूसरेको समझानेके सन्मुख होता है तब यह परार्थ होनेसे परार्थानुमान कहलाने लगता है । उसके कार्यभूत वचनोंमें कारणभूत वक्ताके ज्ञानका उपचार करके परार्थानुमानता आ जाती है। इसी तरह श्रोताके ज्ञानमें चूँकि वचन कारण पड़ते हैं अतः कारणभूत वचनोंमें कार्यरूप ज्ञानात्मक परार्थानुमानका उपचार करके भी उन्हें परार्थानुमान कह सकते हैं। न्यायसूत्र (१।१५) में अनुमानके पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट ये तीन भेदे किये गये हैं। वैशेषिक (वै० सू० ९।२।१) ने अनुमानके कार्यलिङ्गज, कारणलिङ्गज, संयोगिलिङ्गज विरोधिलिङ्गज और समवायिलिङ्गज इस तरह पाँच भेद माने हैं। सांख्यतत्त्वकौमुदी (पृ० ३०) में अनुमानके वीत और अवीत, ये दो मूल भेद करके वीत अनुमानके पूर्ववत् और सामान्यतोदृष्ट ये दो उत्तर भेद किये हैं। सांख्यकारिकाकी प्राचीनतम टीका माठरवृत्ति (पृ. १३) में न्यायसूत्रकी तरह पूर्ववत् आदि तीन भेद ही गिनाये हैं। अन्वयी. व्यतिरेकी और अन्वयव्यतिरेकी ये तीन प्रकार तो न्यायपरम्परामें "पूर्ववत' आदि अनुमान सूत्रकी व्याख्यासे ही फलित किये गये हैं। जैन परम्परामें यद्यपि हेतुके कार्य, कारण, स्वभाव आदि अनेक प्रकार माने हैं किन्तु सबमें "अविनाभाव" इस एक लक्षणके अनुस्यूत होनेसे इन हेतुओंसे उत्पन्न होनेवाले अनुमानोंमें कोई जातिभेद नहीं माना है। साधनका साध्यके साथ अविनाभाव सपक्षमें गृहीत होनेका कोई महत्त्व नहीं है। जिन अनुमानोंमें सपक्ष नहीं पाया जाता वहाँ भी अविनाभावके बलसे साध्यसिद्धि होती है। अतः सपक्षसत्त्वको आधार मानकर किये जानेवाले पूर्ववत् आदि तथा वीत अवीत आदि भेदोंका कोई मौलिक आधार नहीं रह जाता। साध्य और साधनका अविनाभाव संयोगमूलक, समवायमूलक या किसी अन्य मूलक हो उससे अविनाभावके स्वरूपमें कोई अन्तर नहीं आता और इसीलिए इस निमित्तसे अनुमानमें प्रकारभेद स्वीकार नहीं किया जा सकता। इनमें पूर्वचर और उत्तरचर आदि हेतुओंसे उत्पन्न होनेवाले अनुमानोंका समावेश भी सम्भव नहीं है। अतः इन अपूर्ण भेदोंकी गणना विशेष लाभप्रद नहीं है। अनुमानके अंग-मुख्यतया अनुमानके धर्मी, साध्य और साधन, ये तीन अंग होते हैं । साध्य गम्य होता है साधन गमक और धर्मी साध्य धर्मका आधार । धर्म और धर्मीके समुदायको पक्ष मानकर पक्ष और हेतु ये दो अवयव भी अभेद विवक्षामें हो सकते हैं। इतर दार्शनिकोंने अनुमानके आवश्यक अंगोंमें दृष्टान्तका भी स्थान माना है। परन्तु दृष्टान्तके बिना भी मात्र अविनाभावसे साध्यसिद्धि देखी जाती है और 'अविनाभावका ग्रहण भी दृष्टान्तमें ही हो' ऐसा कोई नियम नहीं है। इसलिए जैनपरम्परामें दृष्टान्तको अनुमानका अङ्ग नहीं माना । हाँ, शिष्योंको समझानेके लिए उसकी उपयोगिता अवश्य स्वीकार की है और है भी। १ न्यायबि० २।३।
SR No.007280
Book TitleNyayvinischay Vivaran Part 02
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1954
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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