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न्यायविनिश्चयविवरण
हुआ है। जिन आचार्योंके न्याय-विषयके ग्रन्थ हमें उपलब्ध हुए हैं उनमें समन्तभद्र और सिद्धसेन पुरोगामी आचार्य सिद्ध होते हैं। इन आचार्योंके ग्रन्थोंमें जैनन्यायका प्रतिपादन बीजरूपसे पाया जाता है। उसका विस्तार आगे चलकर अकलंक, हरिभद्र, विद्यानन्द, माणिक्यनन्दी, प्रमाचन्द्र, वादिदेव, हेमचन्द्र आदि अनेक भाचार्योंने स्वतन्त्र ग्रन्थों-द्वारा अथवा प्राचीन ग्रन्थों पर टीका भाष्यादि-द्वारा किया है। दुर्भाग्यतः यह बिपुल साहित्य अभीतक विद्वत्संसारके सन्मुख आधुनिक रीतिसे उपस्थित नहीं किया गया। इसका फल यह हुआ कि जैन न्यायसाहित्यका व्यवस्थित ज्ञान अन्य विद्वानोंको पूर्णतया प्राप्त नहीं हो सका और स्वयं जैन-समाजके भीतर भी उसका समुचित अध्ययन-अध्यापन नहीं हो रहा है। ऐसी अवस्थामें कोई आश्चर्य नहीं जो स्वयं जैनधर्मानुयायी भी अपने आचार और विचारमें स्याद्वाद या अनेकान्तकी उदात्त भूमिकाका परिपालन न कर सके हों। और इसी कारण जहाँ अहिंसा आदिक नैतिक तत्त्वोंपर अत्यधिक जोर दिया जाता है वहाँ उन नियमोंको पालनेमें जो देश काल आदि परिस्थितिका विचार और विवेक अनेकान्त दृष्टिसे करना आवश्यक है वह नहीं किया जाता है।
भारतीय न्याय-साहित्यमें आचार्य अकलंकदेवके ग्रन्थोंका बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनके अबतक जिन ग्रन्थोंका पता चला है उनमें निम्नलिखित ग्रन्थ पूर्णतया न्यायविषयके हैं। लघीयस्त्रय, प्रमाणसंग्रह. न्यायविनिश्चय और सिद्धिविनिश्चय । इन सभी ग्रन्थोंका आधुनिक ढंगसे सम्पादन पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने किया है और उनमेंसे तीसरा न्यायविनिश्चय वादिराजसूरिकृत विवरणसहित प्रथमभाग भारतीय ज्ञानपीठसे मूर्ति देवी जैन ग्रन्थमाला ग्रन्थाङ्क३ के रूपमें सन् १९४९ में प्रकाशित हो चुका है। उसीका दूसरा भाग अब ग्रन्थाङ्क १२ के रूपमें विद्वत्समाजके सन्मुख प्रस्तुत किया जा रहा है। इस प्रकाशनके साथ यह महत्वपूर्ण और विशाल ग्रन्थ सुचारुरूपसे, सात उपयोगी परिशिष्टोंके साथ, पूर्ण हो रहा है। यह बड़े सन्तोषकी बात है।
जिस परिश्रम, विद्वत्ता और रुचिके साथ पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने इस महान् ग्रन्थका सम्पादन किया है उसके लिए उन्हें जितना धन्यवाद दिया जाय थोड़ा ही है। उसी प्रकार जिस उदारताके साथ भारतीय ज्ञानपीठके संस्थापक श्रीमान् साहू शान्तिप्रसादजीने इन ग्रन्थोंके प्रकाशनका भार उठाया है उसके लिए विद्वत्समाज चिरऋणी रहेगा। ऐसे ग्रन्थोंका प्रकाशन-कार्य नो गतिशील हो सका है उसका श्रेय ज्ञानपीठके सुयोग्य मन्त्री श्री अयोध्याप्रसादजी गोयलीय को है। हम आशा करते हैं कि, जिस उत्साहसे उक्त महानुभावोंने अभीतक इस प्रकाशन-कार्यको सम्हाला है वह चिरस्थायी होगा जिससे भारतीय साहित्यके उपेक्षित और अप्रकाशित अनेक ग्रन्थरत्न भी इसी प्रकार संसारके सन्मुख उपस्थित किये जा सके।
सोलापुर ।
-ही० ला जैन ६-५-५५ ।
प्रकाशन-व्यय
-आ० ने० उपाध्याय ७१५/०)। काग़ज़ २२४२६-२८ पौण्ड
२४४८॥) सम्पादन-व्यय ४० रीम १५ जि० शीट
१३६६)॥ कार्यालय-व्यवस्था छपाई ६६ फार्म २ पेन
६१७1) प्रूफ़ संशोधन ५४०) जिल्द बधाई
७५०) भेंट, पालोचना २२/-) कवर काग़ज़
७५) पोस्टेज ग्रन्थ भेंट भेजने का २६) कवर छपाई
४०५०) कमीशन, विज्ञापन, विक्री व्यय आदि कुल लागत १२५७१३) ६०० प्रति छपी. लागत एक प्रति २०॥=JI • मूल्य १५ रु०