SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रधान सम्पादकीय मनुष्य में अन्य प्राणियोंकी अपेक्षा जो विशेषताएँ पाई जाती हैं उनमें जिज्ञासाकी प्रधानता । मनुष्य केवल अपनी भौतिक आवश्यकताओंकी पूर्तिमात्रसे सन्तुष्ट नहीं होता, किन्तु स्वयं अपने व्यक्तित्वको एवं अपनी चारों ओर दृश्यमान पदार्थोंको जानने-समझनेकी उसे तीव्र अभिलाषा होती है। इसी जिज्ञासाके फलस्वरूप दर्शनशास्त्रका आविष्कार हुआ । 1 प्रकृतिमें दो प्रकारसे पदार्थोंकी व्यवस्था पाई जाती है । एक स्थूल और दूसरी सूक्ष्म । स्थूल पदार्थोंका ज्ञान हमें उनकी इन्द्रिय-प्रत्यक्षतः द्वारा प्राप्त होता है । इस क्षेत्रमें हमें इतनी ही सावधानी रखनेकी आवश्यकता पड़ती है कि एक तो हमारी इन्द्रियाँ विकृत न हों, और दूसरे उनके द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थ के धर्मोंको समझनेमें मानसिक भूल न हो । तथापि अन्ततः प्रमाण तो इस क्षेत्रमें वही माना जाएगा जो इन्द्रियप्रत्यक्ष हो । किन्तु यह इन्द्रिय- प्रत्यक्षता सूक्ष्म पदार्थ-व्यवस्था समझने में सहायक नहीं होती । अतएव जो पदार्थ इन्द्रियगोचर नहीं है जैसे जीव, आकाश, काल तथा भौतिक तत्त्वोंका परमाणु रूप इत्यादि वहाँ हमें इन्द्रियप्रत्यक्षका भरोसा न कर, किसी दूसरे प्रमाणका आश्रय लेनेकी आवश्यकता पड़ती है, और इसी आवश्यकताकी पूर्तिके लिए न्यायशास्त्रका आविष्कार हुआ । भारतवर्ष में जितने दर्शनोंका विकास हुआ उनमें प्रायः अपनी-अपनी न्याय-व्यवस्थाका प्रतिपादन भी किया गया है। धीरे-धीरे न्यायकी विधियों का इतना विस्तार हुआ कि वह एक स्वतन्त्र दर्शन माना जाने लगा | उदाहरणार्थ - षड्दर्शनोंमें वेदान्त, सांख्य आदि दर्शनोंके साथ न्याय एक स्वतन्त्र दर्शन है 1 माना गया भारतकी दार्शनिक विचारधारा में श्रमण परम्परा-द्वारा जो तत्त्वचिन्तन हुआ उसका प्रतिपादन हमें दो विभागों में प्राप्त होता है-एक जैन और दूसरा बौद्ध । इन दोनों दर्शनोंने भी अपने-अपने न्यायशास्त्रोंकी व्यवस्था की है जो महत्त्वपूर्ण है, और उसका ज्ञान प्राप्त हुए बिना भारतकी संस्कृति और विचार-सरणिकी जानकारी अधूरी रह जाती 1 जैनदर्शनोंके भीतर जो न्यायकी व्यवस्था पाई जाती है वह स्वभावतः बहुत अंशोंमें अन्य न्याय शास्त्रोंके समान होते हुए भी अपनी कुछ मौलिक विशेषताएँ रखती हैं। ये विशेषताएँ मुख्यतः दो हैं, एक स्याद्वाद या अनेकान्त और दूसरी नयवाद । स्याद्वादमें इस बातपर जोर दिया गया है कि प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है और जब हम वस्तुके किसी एक गुणधर्मका उल्लेख करते हैं तब हमें यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि वह उस वस्तुका आंशिक रूप ही है, पूर्णस्वरूप नहीं । जब हम किसी पदार्थ के एक व अनेक गुणोंका वर्णन इस प्रकार करते हैं कि मानो उसमें उनके सिवाय और गुण है ही नहीं, तब एकान्तदोष उत्पन्न होता है जो मिथ्यादृष्टिका जनक है । स्याद्वादमें इसी दोषसे बचने के प्रयत्नपर जोर दिया गया है। जिन दार्शनिक विद्वानोंने स्याद्वादपर आक्षेप किये हैं और उसमें दूषण दिखानेका प्रयत्न किया है वे स्याद्वादके उक्त मर्मको नहीं पहिचान पाये । किया गया है, और वहाँ नैगअनन्त धर्मोमेंसे प्रस्तुतमें कौनसे स्याद्वादप्रणाली की सूक्ष्म व्यवस्था के लिए नये वादका प्रतिपादन मादि सात नयोंके द्वारा यह बतलानेका प्रयत्न किया गया है कि वस्तुके सामान्य व विशेष अथवा मिश्रित गुणधर्मोपर विचार किया जा रहा है, तथा जिन शब्दों द्वारा वस्तुका स्वरूप बतलाया जा रहा है उनके अर्थमें संकीर्ण और विस्तार किस व्यवस्थासे होता है । इस प्रकार नयोंके अर्थनय और शब्दनय ये दो भेद हो जाते हैं । अनेकान्त और नयवादके आधारपर जिस न्यायशास्त्रका विकास हुआ है वह जैनसाहित्यकी एक महान् निधि है । सामान्यतया प्राचीनतम जैनसाहित्य में भी इस न्यायका कुछ-न-कुछ विवेचन पाया ही जाता है । तथापि इस विषय में स्वतन्त्र ग्रन्थोंका निर्माण विक्रमकी लगभग तीसरी चौथी शताब्दिसे प्रारम्भ
SR No.007280
Book TitleNyayvinischay Vivaran Part 02
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1954
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy