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________________ ५४ न्यायविनिश्वयविवरण में उचित भी है पर लोक व्यवहार के निर्वाहार्थ वैशद्यांश का सद्भाव होने से उसे संव्यवहार प्रत्यक्ष भी कहा गया है। देश का लक्षण अकलदेव ने स्वयं घीयप ( कारिका नं० ४ ) में यह किया है"अनुमानाद्यतिरेकेण विशेषप्रतिभासनम् । तद्वैशचं मतं बुद्धेरवैशद्यमतः परम् ॥ " अर्थात् अनुमान आदिक से अधिक, नियत देश काल भीर आकार रूप से प्रचुरतर विशेषों के प्रतिभासन को वैशद्य कहते हैं। दूसरे शब्दों में जिस ज्ञान में अन्य किसी ज्ञान की सहायता अपेक्षित न हो यह ज्ञान विशद कहलाता है। जिस तरह अनुमान आदि ज्ञान अपनी उत्पत्ति में लिंगज्ञान आदि ज्ञानान्तर की अपेक्षा करते हैं उस तरह प्रत्यक्ष अपनी उत्पत्ति में किसी अन्य ज्ञान की आवश्यकता नहीं रखता। यही अनुमानादि से प्रत्यक्ष में अतिरेक-अधिकता है। यद्यपि आगमिक दृष्टि से इन्द्रिय आलोक या ज्ञानान्तर किसी भी कारण की अपेक्षा रखनेवाला ज्ञान परोक्ष है और आत्ममात्रसापेक्ष ही ज्ञान प्रत्यक्ष पर दार्शनिक क्षेत्र सुलझाया है I में अकलङ्कदेव के सामने प्रमाणविभाग की समस्या थी जिसे उन्होंने बड़ी व्यवस्थित रीति से तत्वार्थसूत्र में मति और अत इन दोनों शानों को परीक्ष कहा है और वहीं मति स्मृति संज्ञा चिन्ता और अभिनिबोध को अनर्थान्तर बताया है। अनर्थान्तर कहने का तात्पर्य इतना ही है कि ये सब मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होते हैं। मति में इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होनेवाले अवग्रह ईहा अवाय और धारणा ज्ञान सम्मिलित है। देव ने मति को सांयवहारिक प्रत्यक्ष कहकर लोकप्रसिद्ध इन्द्रियज्ञान की प्रत्यक्षता का निर्वाह किया और स्मृति प्रत्यभिज्ञान तर्क अनुमान और श्रुति इन सब को परोक्ष प्रमाण रूप से परिगणित किया। आगम में मति और अत परोक्ष ये ही स्मृति आदि मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न होने के कारण मतिज्ञान ये ही इसलिए इनका परोक्षत्व भी सिद्ध था मात्र इन्द्रिय और मनोजन्य मति को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष बना देने से समस्त प्रमाण व्यवस्था जम गई और लोक प्रसिद्धि का निर्वाह भी हो गया। वैद्यपि अकलकुदेव ने यय में स्मृति प्रत्यभिज्ञान तर्क और अनुमान को भी मनोमति कहा है और सम्भवतः वे इन्हें भी प्रादेशिक प्रत्यक्षकोटि में लाना चाहते थे पर वह प्रयास आगे के आचार्यों के द्वारा समर्थित नहीं हुआ । इस तरह अकलङ्कदेव ने विशदज्ञान को प्रत्यक्ष कहकर श्रीसिद्धसेन दिवाकर के 'अपरोक्ष ग्राहक प्रत्यक्ष' इस प्रत्यक्ष लक्षण की कमी को दूर कर दिया । उत्तर कालीन समस्त जैनाचार्यों ने अकलङ्कोपज्ञ इस लक्षण और प्रमाणव्यवस्था को स्वीकार किया है। raft बौद्ध भी विशदज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं फिर भी प्रत्यक्ष के लक्षण में अकलङ्कदेव के द्वारा विशद पद के साथ ही प्रयुक्त साकार और अंजसा पद खास महत्त्व रखते हैं। बौद्ध निर्विकल्पक ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं । यह निर्विकल्पक ज्ञान जैनदार्शनिक परम्परा में प्रसिद्ध विषयविषयसन्निपात के बाद होनेवाले सामान्यावभासी अनाकार दर्शन के समान है। अकलदेव की दृष्टि में जय निर्विकल्पक दर्शन प्रमाणकोटि से ही बहिर्भूत है तब उसे प्रत्यक्ष तो कहा ही नहीं जा सकता था। इसी बात की सूचना के लिए उन्होंने प्रत्यक्ष के लक्षण में साकार पद दिया है। जो निराकार दर्शन तथा बौद्धसम्मत निर्विकल्पकप्रत्यक्ष का निराकरण कर निश्चयात्मक विशदशान को ही प्रत्यक्षकोटि में रखता है। बौद्ध निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के बाद होने वाले 'नीलमिदम्' इत्यादि प्रत्यक्षज विकल्पों को भी संव्यवहार से प्रमाण मान लेते हैं। इसका कारण यह है कि प्रत्यक्ष के विषयभूत दृश्य स्वलक्षण में विकल्प के विषयभूत विकल्य सामान्य का एकत्वाध्यवसाय करके प्रवृत्ति करने पर स्वलक्षण ही प्राप्त होता है, अतः विकल्प ज्ञान भी संव्यवहार से प्रमाण बन जाता है। इस विकल्प में निर्विकल्पक की ही विशदता आती है। इसका कारण है निर्विकल्पक और सविकल्पक का अतिशीघ्र उत्पन्न होना या एक साथ होना । तात्पर्य यह कि बौद्ध के मत से सविकल्पक में न तो अपना वैशद्य है और न प्रमाणस्व । इसका निरास करने के लिए अकलङ्कदेव ने अंजसा विशेषण दिया है और सूचित किया है कि विकल्पज्ञान अंजसा विशद है संव्यवहार से नहीं।
SR No.007279
Book TitleNyayvinischay Vivaran Part 01
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages618
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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