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प्रस्तावना
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और ऑक्सिजन का ऑक्सिजन ही रहता है उस समय भी प्रतिक्षण परिवर्तन सजातीय रूप होता ही रहता है । यही विश्व के समस्त चेतन अचेतन द्रव्यों की स्थिति है । इस तरह एक धारा की पर्यायों में अनुगत व्यवहार का कारण सादृश्य समान्य न होकर ऊर्ध्वता सामान्य धौव्य सन्तान या द्रव्य होता है । इसी तरह विभिन्न द्रव्यों में भेदका प्रयोजक व्यतिरेक विशेष होता है जो तद्व्यक्तित्व रूप है । एक द्रव्य की दो पर्यायों में भेद व्यवहार कराने वाला पर्याय नामक विशेष है।
"जैन दर्शनने उन सभी कल्पनाओं के ग्राहक नय तो बताए हैं जो वस्तुसीमा को लाँघकर अधारता याद की ओर जाती हैं। पर साथ ही स्पष्ट कह दिया है कि ये सब वक्ता के अभिप्राय हैं, उसके संकल्प के प्रकार हैं । वस्तुस्थिति के ग्राहक नहीं हैं ।
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गुण और धर्म-वस्तु में गुण भी होते हैं और धर्म भी गुण स्वभावभूत है और इनकी प्रतीति । परनिरपेक्ष होती है। धर्मोकी प्रतीति परसापेक्ष होती है और व्यवहारार्थ इनकी अभिव्यक्ति वस्तु की योग्यता के अनुसार होती रहती है। धर्म अनन्त होते हैं। गुण गिने हुए हैं। यथा-जीव के असाधारण गुण- ज्ञान दर्शन, मुख, बी आदि है। साधारण गुण वस्तुत्य प्रमेयत्व सत्व आदि पुल के रूप रस गन्ध स्पर्श आदि असाधारण गुण हैं। मंडव्य का गतिहेतुत्य अधर्मद्रव्य का स्थितिहेतुख, आकाश का अवगाहननिमिव और कालका वर्तनाहेतुत्व असाधारण गुण हैं। साधारण गुण वस्तुख सत्व अभिधेयत्व प्रमेयत्य आदि । जीव में ज्ञानादि गुणों की सत्ता और प्रतीति निरपेक्ष है, स्वाभाविक है । पर छोटा बड़ा, पितृत्व गुरुवयव आदि धर्म सापेक्ष हैं। यद्यपि इनकी योग्यता जीव में है पर शानादि के समान थे स्वरसतः गुण नहीं हैं। इसी तरह पुल में रूप रस गन्ध और स्पर्श ये तो स्वाभाविक परनिरपेक्ष गुण हैं परन्तु छोटा बड़ा एक दो तीन आदि संरूपा, संकेत के अनुसार होनेवाली वाव्यता आदि ऐसे धर्म है जिनकी अभिव्यक्ति व्यवहारार्थं होती है । गुण परनिरपेक्ष स्वतः प्रतीत होते हैं तथा धर्म परापेक्ष होकर । वस्तु में योग्यता दोनों की है। सामान्य विवक्षा से सभी वस्तु के स्वभाव माने जाते हैं। सप्तमी में धर्मों की कल्पना वक्ता के प्रश्नों के अनुसार की जाती है। एक धर्म को केन्द्र में मानने पर उसका प्रतिपक्षी धर्म आ जाता है। फिर दोनो रूपको एकसाथ शब्द से कहने का प्रयत्न संभव नहीं है अतः वस्तु का निजरूप अवक्तव्य उपस्थित हो जाता है। इस तरह सत् असत् और अवक्तव्य इन तीन धर्मों को लेकर अधिक से अधिक सात ही प्रश्न हो सकते हैं। अतः सप्तभङ्गी का निरूपण अधिक से अधिक सात प्रश्नों की संभावना का उत्तर है। प्रश्न सात हो सकते हैं इसका कारण सात प्रकार की जिज्ञासा का होना है। जिज्ञासा का सात प्रकार का होना सात प्रकार के संशयों के अधीन है। तथा संशय सात इसलिए होते हैं कि वस्तु के धर्म ही सात प्रकार के हैं ।
विशदर्शन प्रत्यक्ष — इस तरह ज्ञान द्रयपयात्मक और सामान्यविशेषात्मक अर्थ को विषय करता है। केवल सामान्यात्मक या विशेषात्मक कोई पदार्थ नहीं है और न केवल इव्यात्मक या पर्यायात्मक ही इसीलिए अकदेवने प्रत्यक्ष का लक्षण करते समय वार्तिक में य पर्याय सामान्य और विशेष ये चार विशेषण अर्थ के दिए हैं। इनकी सार्थकता उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाती है । ज्ञान के लिए उनने लिखा है कि उसे साकार और स्वसंवेदी होना चाहिए । यहाँ तक साकार स्वसंवेदी और द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषार्थवेदी ज्ञान का निरूपण हुआ। ऐसा ज्ञान जब अंजसा स्पष्ट अर्थात् परमार्थतः विशद हो तब उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। साधारणतया दर्शनान्तरों में तथा लोकव्यवहार में इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष माना गया है। तथा इन्द्रिय के परे रहनेवाले पदार्थ का बोध परोक्ष कहा जाता है पर जैन दर्शन का प्रत्यक्ष और परोक्ष का अपना स्वोपज्ञ विचार है वह इन्द्रिय आदि पर पदार्थों की अपेक्षा रखने वाले ज्ञान को परोक्ष अर्थात् परतन्त्र ज्ञान मानता है, तथा इन्द्रियादि निरपेक्ष आत्ममात्रोत्थ ज्ञान को प्रत्यक्ष । यह प्रत्यक्ष का कारणमूलक विवेचन है पर स्वरूप में जो ज्ञान विशद हो वह प्रत्यक्ष कहलाता है। यह विशदता उपवहार में अंशतः इन्द्रियजन्य ज्ञान में भी पाई जाती है अतः इन्द्रियजन्य ज्ञान को संख्य बहार प्रत्यक्ष कहते हैं। यद्यपि आगमों में इन्द्रियजन्य मति को परोक्ष कहा है और वह आगमिक परिभाषा