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न्यायविनिश्वयविवरण
एक ही तत्व का प्रतिभास चेतन और अचेतन रूप में माना गया। इस तरह देश काल और स्वरूप, हर प्रकार से चरम अभेद की कोटि वेदान्त दर्शन है। बौद्धदर्शन प्रत्येक चित् अचित् स्वलक्षणों की वास्तव स्वतन्त्र सत्ता मानकर ही चुप नहीं रहता। वह उनमें कालिक भेद भी क्षणपर्याय तक स्वीकार करता है । यहाँ तक तो उसका पारमार्थिक भेद है। जो प्रथमक्षण में है वह द्वितीय में नहीं, जो जहाँ जिस समय जैसे है वह वहीं उसी समय वैसे ही है, द्वितीयक्षण में नहीं'। दो देशों में रहनेवाली दो क्षणों में रहनेवाली कोई वस्तु नहीं है । इस तरह देश काल और स्वरूप की दृष्टि से अन्तिम भेद बौद्धदर्शन का लक्ष्य है । पर अभेद की तरफ वेदान्त दर्शन और भेद की ओर बौद्धदर्शन वास्तववाद से काल्पनिकता या अवास्तव बाद की ओर पहुँच जाते हैं। बौद्धदर्शन में विज्ञानवादी विभ्रमवादी शून्यवादी सभी काल्पनिक भेद के उपासक हैं। उनने बाह्यजगत् का अस्तित्व ही स्वीकार नहीं किया। किसी ने उसे सांवृत कहा तो किसी ने उसे अविद्यानिर्मित कहा तो किसी ने उसे प्रत्ययमात्र ।
जैन दर्शन ने भेद और अभेद का अन्तिम विचार तो किया पर वास्तवसीमा को साँधा नहीं है। उसने दो प्रकार के अभेदप्रयोजक सामान्य धर्म माने तथा दो प्रकार के विशेष, जो भेद कल्पना के विषय होते हैं । दो विभिन्न सत्ताक द्रव्यों में अभेद व्यवहार सादृश्य से ही हो सकता है एकत्व से नहीं । इसलिए परम संग्रहनय यद्यपि वेदान्त की परसत्ता की विषय करता है और कह देता है कि 'सहूपेण चेतना चेतनानां भेदाभावात् अर्थात् सहप से चेतन और अचेतन में कोई भेद नहीं है' पर वह व्यवहारनय के विषयभूत वास्तव भेद का लोप नहीं करता। वह स्पष्ट घोषणा करता है कि चेतन और अचेतन में सत् सादृश्य रूप से अनुगतव्यवहार हो सकता है पर कोई ऐसा एक सत् नहीं जो दोनों में वास्तव अनुगत सत्ता रखता हो, सिवाय इसके कि दोनों में 'सत् सत्' ऐसा समान प्रत्यय होता है और 'सत् सत् ऐसा शब्द प्रयोग होता है। एक हथ्य की कालक्रम से होने वाली पर्यायों में जो अनुगतव्यवहार होता है यह परमार्थसत् एकदव्यमूलक है। यद्यपि द्वितीयक्षण में अमितद्रव्य अखण्ड का अखण्ड बदलता है-परिवर्तित होता है पर उस सत् का जो कि परिवर्तित हुआ है अति दुनिया से नष्ट नहीं किया जा सकता, उसे मिटाया नहीं जा सकता। जो वर्तमानक्षण में अमुक दशा में है वही अखण्ड का अखण्ड पूर्वक्षण में अतीतदशा में था, वही बदलकर आगे के क्षण में तीसरा रूप लेगा, पर अपने स्वरूपसत्व को नहीं छोड़ सकता, सर्वथा महाविनाश के गर्त में प्रलीन नहीं हो सकता । इसका यह तात्पर्य बिलकुल नहीं है कि उसमें कोई शाश्वत कूटस्थ अंश है, किन्तु बदलने पर भी उसका सन्तानप्रवाह चालू रहता है कभी भी उच्छ नहीं होता और न दूसरे में विलीन होता है अतः एक द्रव्य की अपनी पर्याय में होनेवाला अनुगत यवहार ऊसासामान्य वा द्रव्यमूलक है। यह अपने में वस्तुसत् है। पूर्व पर्याय का अखण्ड निचोड़ उत्तरपर्याय है और उत्तरपर्याय अपने निचोड़भूत आगे की पर्याय को जन्म देती है। इस तरह जैसे अतीत और वर्तमान का उपादानोपादेय सम्बन्ध है उसी तरह वर्तमान और भविष्य का भी । परन्तु सत्ता वर्तमान क्षणमात्र की है। पर यह वर्तमान परम्परा से अनन्त अतीतों का उत्तराधिकारी है और परम्परा से अनन्त भविष्य का उपादान भी बनेगा। इसी दृष्टि से द्रव्य को कालत्रययती कहते हैं। शब्द इतने लचर होते हैं कि वस्तु के शतप्रतिशत स्वरूप को अभ्रान्त रूप से उपस्थित करने में सर्वत्र समर्थ नहीं होते । यदि वर्तमान का अतीत से बिलकुल सम्बन्ध न हो तभी निरम्य क्षणिकत्व का प्रसङ्ग हो सकता है, परन्तु जब वर्तमान अतीत का ही परिवर्तित रूप है तब वह एक दृष्टि से सान्वय ही हुआ। यह केवल पंक्ति और सेना की तरह व्यवहारार्थ किया जानेवाला संकेत नहीं है किन्तु कार्य कारणभूत और खासकर उपादानोपादेयमूलक तस्य है। वर्तमान जलबिन्दु एक ऑक्सिजन और एक हाइड्रोजन के परमाणुओं का परिवर्तन मात्र है, अर्थात् ऑक्सिजन को निमित्त पाकर हाइड्रोजन परमाणु और हाइड्रोजन को निमित्त पाकर ऑक्सिजन परमाणु दोनों ने ही जल पर्याय प्राप्त कर की है। इस द्विपरमाणुक जलबिन्दु के प्रत्येक जाणु का विश्लेषण कीजिए तो ज्ञात होगा कि जो एटम ऑक्सिजन अवस्था को धारण किए था वह समूचा बदलकर जल बन गया है । इसका और पूर्व ऑक्सिजन का यही सम्बन्ध है कि यह उसका परिणाम है। वह जिस समय जल नहीं बनता