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प्रस्तावना
समय एक व्यक्ति में प्रकट होता है उसी समय उसे सर्वत्र-व्यक्तियों के अन्तराल में भी प्रकट होना चाहिए। अन्यथा क्वचित् व्यक्त और क्वचित् अव्यक्त रूप से स्वरूपभेद होने पर अनित्यत्व और सांशत्व का प्रसङ्ग प्राप्त होगा। यदि सामान्य पदार्थ अन्य किसी सत्तासम्बन्ध के अभाव में भी स्वतः सत् है तो उसी तरह द्रव्य गुण आदि पदार्थ भी स्वतःसत् ही क्यों न माने जायँ ? अतः सामान्य स्वतन्त्र पदार्थ न होकर द्रव्यों के सदृश परिणमनरूप ही है।
वैशेषिक तुल्य आकृति तुल्यं गुण वाले सम परमाणुओं में परस्पर भेद प्रत्यय कराने के निमित्त स्वतो विभिन्न विशेष पदार्थ की सत्ता मानते हैं। वे मुक्त आत्माओं में मुक्त आत्मा के मनों में विशेष प्रत्यय के निमित्त विशेष पदार्थ मानना आवश्यक समझते हैं । परन्तु प्रत्यय के आधार से पदार्थ व्यवस्था मानने का सिद्धान्त ही गलत है। जितने प्रकार के प्रत्यय होते जायँ उतने स्वतन्त्र पदार्थ यदि माने जाय तो पदार्थों की कोई सीमा ही नहीं रहेगी। जिस प्रकार विशेष पदार्थ स्वतः परस्पर भिन्न हो सकते हैं उसी तरह परमाणु आदि भी स्वस्वरूप से ही परस्पर भिन्न हो सकते हैं। इसके लिए किसी स्वतन्त्र विशेष पदार्थ की कोई आवश्यकता नहीं है। व्यक्तियाँ स्वयं ही विशेष हैं। प्रमाण का कार्य है स्वतःसिद्ध पदार्थ की असंकर व्याख्या करना।
बौद्ध सदृशपरिणमनरूप समानधर्म स्वीकार न कर के सामान्य को अन्यापोह रूप मानते हैं। उनका अभिप्राय है कि-परस्पर भिन्न वस्तुओं को देखने के बाद जो बुद्धि में अभेदभान होता है उस बुद्धिप्रतिबिम्बित अभेद को ही सामान्य कहते हैं । यह अभेद भी विध्यात्मक न होकर अतव्यावृत्तिरूप है। सभी पदार्थ किसी न किसी कारण से उत्पन्न होते हैं तथा कोई न कोई कार्य उत्पन्न भी करते हैं। तो जिन पदार्थों में अतत्कारगव्यावृत्ति और अतरकार्यव्यावृत्ति पाई जाती है उनमें अनुगत व्यवहार कर दिया जाता है। जैसे जो व्यक्तियाँ मनुष्यरूप कारण से उत्पन्न हुई हैं और आगे मनुष्यरूप कार्य उत्पन्न करेंगी उनमें अमनुष्यकारण-कार्यव्यावृत्ति को निमित्त लेकर 'मनुष्य मनुष्या ऐसा अनुगत व्यवहार कर दिया जाता हैं। कोई वास्तविक मनुष्यत्व विध्यात्मक नहीं है। जिस प्रकार चक्षु आलोक और रूप आदि परस्पर अत्यन्त भिन्न पदार्थ भी अरूपज्ञानजननव्यावृत्ति के कारण 'रूपज्ञानजनक' व्यपदेश को प्राप्त करते हैं उसी प्रकार सर्वत्र अतद्व्यावृत्ति से ही समानाकार प्रत्यय हो सकता है। ये शब्द का वाच्य इसी अपोहरूप सामान्य को ही स्वीकार करते हैं । विकल्पज्ञान का विषय भी यही अपोहरूप सामान्य है।
अकलङ्कदेव ने इसकी आलोचना करते हुए लिखा है कि सादृश्य माने बिना अमुक व्यक्तियों में ही अपोह का नियम कैसे बन सकता है ? यदि शाबलेय गौव्यक्ति बाहुलेय गौव्यक्ति से उतनी ही भिन्न है जितनी कि किसी अश्वादिव्यक्ति से, तो क्या कारण है कि शाबलेय और बाहुलेय में ही अतव्यावृत्ति मानी जाय अश्व में नहीं। यदि अश्व से कुछ कम विलक्षणता है तो यह अर्थात् ही मानना होगा कि उनमें ऐसी समानता है जो अश्व के साथ नहीं है। अतः सादृश्य ही व्यवहार का सीधा नियामक हो सकता है। यह तो प्रत्यक्षसिद्ध है कि वस्तु समान और असमान उभयविध धर्मों का आधार होती है। समानधर्मों के आधार से अनुगत व्यवहार किया जाता है और असमान धर्म के आधार से व्यावृत्त व्यवहार । अन्य नहीं, 'अतद्व्यावृत्ति' यही एक समान धर्म तत्तद्व्यक्तियों में स्वीकार करना होगा। बौद्ध जब स्वयं अपरापर क्षणों में सादृश्य के कारण एकत्वभान तथा सीप में सादृश्य के ही कारण रजतभ्रम स्वीकार करते हैं तब अनुगत व्यवहार के लिए सादृश्य को स्वीकार करने में उन्हें क्या बाधा है ? अतद्व्यावृत्ति और बुद्धिगत अभेद प्रतिबिम्ब का निर्वाह भी सादृश्य के बिना नहीं हो सकता। अतः सदृश परिणामरूप ही सामान्य मानना चाहिए । शब्द और विकल्पज्ञान भी सामान्यविशेषात्मक वस्तु को ही विषय करते हैं, न केवल सामान्यात्मक को और न केवल विशेषात्मक को ही।
सामान्यतया कल्पनाओं का लक्ष्य द्विमुखी होता है-एक तो अभेद की ओर दूसरा भेद की ओर । जगत् में अभेद की ओर चरम कल्पना वेदान्त दर्शन ने की है। वह इतना अभेद की ओर बढ़ा कि वास्तविक स्थिति को लाँधकर कल्पनालोक में ही जा पहुँचा । चेतन अचेतन का स्थूल भेद भी मायारूप बन गया।