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न्यायविनिश्चयविवरण हैं । अतन्तः ध्रौव्य इतना ही है कि एक द्रव्य की पूर्वपर्याय द्रव्यान्तर की उत्तर-पर्याय नहीं बनती और न वहीं समाप्त होती है। इस तरह द्रव्यान्तर से असाङ्कर्य का नियामक ही ध्रौव्य है । इसके कारण प्रत्येक द्रव्य की अपनी स्वतन्त्र सत्ता रहती है और नियत कारणकार्य परम्परा चालू रहती है। वह न विच्छिन्न होती है और न संकर ही। यह भी अतिसुनिश्चित है कि किसी भी नये द्रव्य का उत्पाद नहीं होता और न मौजूद का अत्यन्त विनाश ही । केवल परिवर्तन, सो भी प्रतिक्षण निराबाध गति से।
इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखता है। वह अनन्त गुण और अनन्त शक्तियों का धनी हैं।। पर्यायानुसार कुछ शक्तियाँ आविर्भूत होती हैं कुछ तिरोभूत । जैनदर्शन में सत् का एक लक्षण तो है "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत्" दूसरा है “सद् द्रव्यलक्षणम्'। इन दोनों लक्षणों का मथितार्थ यही है कि द्रव्य को सत् कहना चाहिए और वह द्रव्य प्रतिक्षण उत्पाद व्यय के साथ ही साथ अपने अविच्छिन्नता रूप धौव्य को धारण करता है। द्रव्य का लक्षण है-'गुंगपर्ययवद् द्रव्यम्" अर्थात् गुण और पर्यायवाला द्रव्य होता है। गुण सहभावी और अनेक शक्तियों के प्रतिरूप होते हैं जब कि पर्याय क्रमभावी और एक होती है । द्रव्य का प्रतिक्षण परिणमन एक होता है। उस परिणमन को हम उन उन गुणों के द्वारा अनेक रूप से वर्णन कर सकते हैं। एक पुद्गलाणु द्वितीय समय में परिवर्तित हुआ तो उस एक परिणमन का विभिन्न रूपरसादि गुणों के द्वारा अनेक रूप में वर्णन हो सकता है। विभिन्न गुणों की द्रव्य में स्वतन्त्र सत्ता न होने से स्वतन्त्र परिणमन नहीं माने जा सकते। अकलङ्कदेव ने प्रत्यक्ष के ग्राह्य अर्थ का वर्णन करते समय द्रव्य-पर्याय-सामान्य-विशेष इस प्रकार जो चार विशेषण दिए हैं वे पदार्थ की उपयुक स्थिति को सूचित करने के लिए ही हैं। द्रव्य और पर्याय पदार्थ की परिणति को सूचित करते हैं तथा सामान्य और विशेष अनुगत और व्यावृत्त व्यवहार के विषयभूत धर्मों की सूचना देते हैं।
नैयायिक वैशेषिक-प्रत्यय के अनुसार वस्तु की व्यवस्था करते हैं। इन्होंने जितने प्रकार के ज्ञान और शब्द व्यवहार होते हैं उनका वर्गीकरण करके असाङ्कर्यभाव से उतने पदार्थ मानने का प्रयत्न किया है। इसीलिए इन्हें 'संप्रत्ययोपाध्याय' का जाता है। पर प्रत्यय अर्थात् ज्ञान और शब्द व्यवहार इतने अपरिपूर्ण और लचर हैं कि इन पर पूरा पूरा भरोसा नहीं किया जा सकता। ये तो वस्तु स्वरूप की ओर इशारा मात्र ही कर सकते हैं। 'द्रव्यम् द्रव्यम्' ऐसा प्रत्यय हुआ एक द्रव्य पदार्थ मान लिया । 'गुण गुण' प्रत्यय हुआ गुण पदार्थ मान लिया । 'कर्म कर्म' ऐसा प्रत्यय हुआ कर्म पदार्थ मान लिया। इस तरह इनके सात पदार्थों की स्थिति प्रत्यय के आर्धान है। परन्तु प्रत्यय से मौलिक पदार्थ की स्थिति स्वीकार नहीं की जा सकती। पदार्थ तो अपना अखण्ड ठोस स्वतन्त्र अस्तित्व रखता है. वह अपने परिणमन के अनुसार अनेक प्रत्ययों का विषय हो सकता है । गुण क्रिया सम्बन्ध आदि स्वतन्त्र पदार्थ नहीं हैं, ये तो द्रव्य की अवस्थाओं के विभिन्न व्यवहार हैं। इसी तरह सामान्य कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है जो नित्य और एक होकर अनेक स्वतन्त्र सत्ताक व्यक्तियों में मोतियों में सूत की तरह पिरोया गया हो। पदार्थों के परिगमन कुछ सदृश भी होते हैं और कुछ विसदृश भी। दो विभिन्न सत्ताक व्यक्तियों में भूयःसाम्य देखकर अनुगत व्यवहार होने लगता है । अनेक आत्माएँ अपने विभिन्न शरीरों में वर्तमान हैं पर जिनकी अवयवरचना अमुक प्रकार की सदृश है उनमें 'मनुष्यः मनुष्यः' ऐसा सामान्य व्यवहार किया जाता है तथा जिनकी घोड़ों जैसी उनमें 'अश्वः अश्वः' यह व्यवहार । जिन आत्माओं में सादृश्य के आधार से मनुष्य व्यवहार हुआ है उनमें मनुष्यत्व नाम का कोई सामान्य पदार्थ, जो कि अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखता है, आकर समवायनामक सम्बन्ध पदार्थ से रहता है यह कल्पना पदार्थस्थिति के विरुद्ध है। 'सत् सत्' 'द्रव्यम् द्रव्यम्' इत्यादि प्रकार के सभी अनुगत व्यवहार सादृश्य के आधार से ही होते हैं। सादृश्य भी उभयनिष्ठ कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं हैं। किन्तु यह बहुत अवयवों की समानता रूप ही है। तत्तद् अवयव उन उन व्यक्तियों में रहते ही हैं। उनमें समानता देखकर द्रष्टा उस रूप से अनुगत व्यवहार करने लगता है। वह सामान्य नित्य एक और निरंश होकर यदि सर्वगत है तो उसे विभिन्न देशस्थ स्वव्यक्तियों में खप उशः रहना होगा; क्योंकि एक वस्तु एक साथ भिन्न देश में पूर्णरूप से नहीं रह सकती। नित्य निरश सामान्य जिस