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प्रस्तावना
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पर अपने शिष्य को खड़ाकर लक्ष्यत नहीं करना चाहते थे इसलिए लोक क्या है ? आत्मा क्या है ? और निर्वाणोत्तर जीवन कैसा है ? इन जीवन्त प्रश्नों को भी उनने अव्याकरणीय करार दिया । उनकी विचारधारा और साधना का केन्द्र बिन्दु वर्तमान दुःख के निवृति ही रहा है। राहुलजी एक ओर तो विच्छिन प्रवाह मानते हैं और दूसरी ओर पुनर्जन्म वे इतनी बड़ी असकृति को कैसे पी जाते हैं कि यदि पूर्व और उत्तर क्षण विच्छित है तो पुनर्जन्म कैसा और किसका ? क्या बुद्धवाक्यों की ऐसी ही असंगत व्याख्या को सम्हालने का प्रयत्न शान्तरक्षित और कमलशील जैसे दार्शनिकों ने किया है, जो एक अधिछिन्न कार्यकारण प्रवाह मानते हैं ? अविच्छिन्न का अर्थ है कार्यकारणभाववाली |
जैन दर्शन की दृष्टि में प्रत्येक सत् परिणामी है और यह परिणमन प्रतिक्षणभावी स्वाभाविक है । उसमें किसी अन्य हेतु की आवश्यकता नहीं है । यदि अन्य कारण मिले तो वे उस परिणमन को प्रभावित कर सकते हैं पर उपादान कारण तो पूर्वपचय ही होगी और उसमें जो कुछ है सब अखण्डरूप ही है। अतः द्वितीय क्षण में वह अखण्ड का अखण्ड उत्तरपर्याय बन जाता है। चूँकि पुराना क्षण ही वर्तमान बना है और भविष्य को अपने में शक्ति या उपादान रूप से छिपाए है अतः स्मरण प्रत्यभिज्ञान आदि व्यवहार सोपपतिक और समूल बन जाते हैं। परिणामी का अर्थ है उत्पाद और व्यय होते हुए भी भीग्य रहना । आपाततः यह मालूम होता है कि जो उत्पादविनाशवाला है वह भुव कैसे रह सकता है ? पर भव्य का ध्रुव अर्थ सदा स्थायी कूटस्थ नित्य नहीं है और न यह विवक्षित है कि वस्तु के कुछ अंश उत्पाद विनाश के મર્દો कारण परिवर्तित होते हैं तथा कुछ अंश उस परिवर्तन से अछूते ध्रुव बने रहते हैं और न परिवर्तन का यह स्थूल अर्थ ही है कि जो प्रथमक्षण में है दूसरे क्षण में वह बिलकुल बदल जाता है या विलक्षण हो जाता है। परिवर्तन सदृश भी होता है विसदृश भी । शुद्ध चेतनद्रव्य मुक्त अवस्था में प्रतिक्षण परिवर्तित रहने पर भी कभी विलक्षण परिवर्तन नहीं करता उसका सदा सटश परिवर्तन ही होता रहता है। इसी तरह आकाश, काल, धर्म और अधर्मद्रव्य सदा स्वभावपरिणमन करते हैं। उनमें परिवर्तन करते रहने पर भी कहने लायक कोई विलक्षणता नहीं आती । यों समझाने के लिए परद्वयों के परिवर्तन के अनुसार इनमें भी परप्रत्यय विलक्षणता दिखाई जा सकती है पर न तो इनमें देशभेद होता है न आकारभेद और न स्वरूपविलक्षणता ही । इनका स्वाभाविक परिणमन तो अगुरुलघुगुणकृत ही है। रह जाता है द्रद्रव्य, जिसका शुद्ध परिणमन कोई निश्चित नहीं है। कारण यह है कि शुद्ध जीव को न तो जीवान्तर का सम्पर्क विकारी बना सकता है और न किसी पुद्गलद्रव्य का संयोग ही, पर पुद्गल में तो पुद्गल और जीव दोनों के निमित्त से विकृति उत्पन्न होती है। लोक में ऐसा कोई प्रदेश भी नहीं है जहाँ अन्य पुल या जीव के सम्पर्क से विवक्षित पुला अछूता रह सकता हो। अतः कदाचित् पुल अपनी शुद्ध-भ अवस्था में भी पहुँच जाब पर उसके गुण और धर्म शुद्ध होंगे या द्वितीयक्षण में शुद्ध रह सकते हैं इसका कोई नियामक नहीं है। अनेक पुगलद्रव्य मिलकर स्कन्ध दशामें एक संयुक्त बद्ध पर्याय भी बनाते हैं पर अनेक जीव मिलकर एक संयुक्तपर्याय नहीं बना सकते। संवका परिणमन अपना जुदा जुदा है । स्कन्धगत परमाणुओं में भी प्रत्येकशः अपना सदृश या विसदृश परिणमन होता रहता है और उन सब परिणमनों की औसत से ही स्कन्ध का यजन, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श व्यवहार में आता है। स्कन्धगत परमाणुओं में क्षेत्रकृत और आकारकृत सादृश्य होने पर भी उनका मौलिकत्व सुरक्षित रहता है । लोक से एक भी परमाणु अनन्त परिवर्तन करने पर भी निःसत्व-सत्तान्व अर्थात् असत् नहीं हो सकता। अतः परिणमन में विलक्षणता अनुभूत न होने पर भी स्वभावभूत परिवर्तन प्रतिक्षण होता ही रहता है ।
द्रव्य एक नदी के समान अतीत वर्तमान और भविष्य पर्यायों का कल्पित प्रवाह नहीं है। क्योंकि नदी विभिसत्ताक जलकणों का एकत्र समुदाय है जो क्षेत्रभेद कर के आगे बढ़ता जाता है किन्तु अतीत पर्याय एक एक क्षण में क्रमशः वर्तमान होती हुई इस समय एकक्षणवर्ती वर्तमान के रूप में हैं । अतीत पर्यायों का कोई पर्याय अस्तित्व नहीं है पर जो वर्तमान है वह अतीत का कार्य है, और वही भविष्य का कारण है। सत्ता एक समयमात्र वर्तमानपर्याय की है। भविष्य और अतीत क्रमशः अनुत्पन्न और विनष्ट