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________________ ४८ न्यायविनिश्वयविवरण उससे प्रभावित होता है, इस प्रकार के त्रैकालिक सम्बन्ध को वे मानते थे। यह बात बंद दर्शन के कार्यकारणभाव के अभ्यासी को सहज ही समझ में आ सकती है। निर्वाण के सम्बन्ध में राहुलजी सर राधाकृष्णन् की आलोचना करते समय ( पृ० ५२९ ) बड़े आत्मविश्वास के साथ लिख जाते हैं कि "किन्तु बौद्ध-निर्माण को अभावात्मक छोड़ भावात्मक माना ही नहीं जा सकता । " कृपाकर वे आचार्य कमलशील के द्वारा तत्वसंग्रह पंजिका ( पृ० १०४ ) में उद्घृत इस प्राचीन श्लोक के अर्थ का मनन करें "चित्तमेव हि संसारो रागादिक्लेशवासितम् । तदेव तैर्विर्निमुकं भवान्त इति कथ्यते ॥" ० अर्थात्-चित्त जब रागादिदोष और क्लेश संस्कार से संयुक्त रहता है तब संसार कहा जाता है और और जब तदेव वही चित्र रागादिक्लेश वासनाओं से रहित होकर निरासपचित्त बन जाता है तब उसे भवान्त अर्थात् निर्वाण कहते हैं शान्तरक्षित तो ( तस्य पृ० १८४) बहुत स्पष्ट लिखते हैं कि 'मुक्तिनिर्मलता थियः" अर्थात् चित्त की निर्मलता को मुक्ति कहते हैं। इस लोक में किस निर्माण की सूचना है? यही चिस रागादिवाह से वासित रहकर संसार बना और वही रागादि से शून्य होकर मोक्ष बन गया। राहुलजी माध्यमिकवृत्ति ( पृ० ५१९ ) गत इस निर्वाण के पूर्वपक्ष को भी ध्यान से देखें 1 "इह हि उपग्रह्मणां सभायतशासनप्रतिपचानां धर्मानुधर्म प्रतिपचियुक्तानां पुलानां द्विविधं निर्वाणमुपवर्णितम् — सोपधिशेषं निरुपधिशेषं च । तत्र निरवशेषस्य अविद्यारागादिकस्य क्लेशगणस्य प्राणात् सोपधिशेषं निर्वाणमिध्यते । तत्र 'उपधीयते अस्मिन् आत्मस्नेह इत्युपधिः । उपधिशब्देन आत्मप्रज्ञप्तिनिमित्ताः पञ्चोपादानस्कन्धा उच्यन्ते शिष्यते इति शेषः उपधिरेव शेषः उपधिशेषः सह उपधिशेषेण वर्तत इति सोपधिशेषम् । किं तत् ? निर्वाणम् । तच्च स्कन्धमात्रकमेव केवलं सत्कायदृष्ट्यादिक्लेशतस्कर रहितमवशिष्यते निहताशेपची रगणनाममात्रावस्थानसाधम्र्येण तत् सोपधिशेषं निर्वाणम् । यत्र तु निर्वाणे एकमात्रकमपि नास्ति तनिरुपधिशेषं निर्वाणम्। निर्गत उपधिशेषोऽस्मिन्निति कृत्वा । निहताचीपचीरगणस्त्र ग्राममात्रस्यापि विनाशसाधम्र्येण ।" अर्थात् निर्वाण दो प्रकार का है—१ सोपधिशेष २ निरुपधिशेष । सोपधिशेष में रागादि का नाश होकर जिन्हें आत्मा कहते हैं ऐसे पाँचस्कन्ध निरास्रव दशा में रहते हैं । दूसरे निरुपधिशेष निर्वाण में स्कन्ध भी नष्ट हो जाते हैं । बौद्ध परम्परा में इस सोपधिशेष निर्वाण को भावात्मक स्वीकार किया ही गया है। यह जीवन्मुक्त दशा का वर्णन नहीं है किन्तु निर्वाणावस्था का। 1 आखिर बौद्धदर्शन में ये दो परम्पराएँ निर्वाण के सम्बन्ध में क्यों प्रचलित हुई ? इसका उत्तर हमें बुद्ध की अव्याकृत सूची से मिल जाता है बुद्ध ने निर्वाण के बाद की अवस्था सम्बम्धी इन चार प्रश्नों को अव्याकरणीय अर्थात् उत्तर देने के अयोग्य बताया । “१ क्या मरने के बाद तथागत (बुद्ध) होते हैं ? २ क्या मरने के बाद तथागत नहीं होते ? ३ क्या मरने के बाद तथागत होते भी हैं नहीं भी होते हैं ? ४ क्या मरने के बाद तथागत न होते हैं न नहीं होते हैं ?" माँलुक्य पुत्र के प्रश्न पर बुद्ध ने कहा कि इनका जानना सार्थक नहीं है क्योंकि इनके बारे में कहना मिचय निर्वेद या परमज्ञान के लिए उपयोगी नहीं है। यदि बुद्ध स्वयं निर्वाण के स्वरूप के सम्बन्ध में अपना सुनिश्चित मत रखते होते तो वे अन्य सैकड़ों लौकिक अलौकिक प्रश्नों की तरह इस प्रश्न को अव्याकृत कोटि में न डालते । और यही कारण है जो निर्वाण के विषय में दो धाराएँ बौद्ध दर्शन में प्रचलित हो गई हैं। इसी तरह बुद्ध ने जीव और शरीर की भिन्नता और अभिन्नता को अव्याकृत कोटि में डालकर श्री राहुलजी को बौद्धदर्शन के अभीतिक अनात्मवाद' जैसे उभयप्रतिषेधक नामकरण का अवसर दिया। बुद्ध अपने जीवन में देह और आत्मा के जुदापन और निर्याणोत्तर जीवन आदि अतीन्द्रिय पदार्थों के शतराई
SR No.007279
Book TitleNyayvinischay Vivaran Part 01
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages618
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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