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________________ प्रस्तावना ४७ भी नहीं होता कि अतीत वतमान और भविष्य बिलकुल असम्बद और अतिविच्छिक हो। वर्तमान के प्रति अतीत का उपादान कारण होना और वर्तमान का भविष्य के प्रति यह सिद्ध करता है कि तीनों क्षणों की अविच्छिन्न कार्यकारणपरम्परा है। न तो वस्तु का स्वरूप सदा स्थायी नित्य ही है और न इतना विलक्षण परिणमन करनेवाला जिससे पूर्व और उत्तर किसन्तान की तरह अतिधिच्छिक हो । भदन्त नागसेन ने मिलिन्द प्रश्न में जो कर्म और पुनर्जन्म का विवेचन किया है ( दर्शनदिग्दर्शन पृ० ५५१ ) उसका तात्पर्य यही है कि पूर्वक्षण को प्रतीत्य अर्थात् उपादान कारण बनाकर उत्तरक्षण का समुत्पाद होता है। मज्झिमनिकाय में "अस्मिन् सति इदं भवति" इसके होने पर यह होता है, जो इस आशय का वाक्य है उसका स्पष्ट अर्थ यही हो सकता है कि क्षणसन्तति प्रवाहित है उसमें पूर्वक्षण उत्तरक्षण बनता जाता है जैसे वर्तमान अतीतसंस्कार पुंज का फल है वैसे ही भविष्यक्षण का कारण भी । श्री राहुल सांकृत्यायनने दर्शन - दिग्दर्शन ( पृ० ५१२ ) में प्रतीत्यसमुत्पाद का विवेचन करते हुए लिखा है कि- "प्रतीयसमुत्पाद कार्यकारण नियम को अविच्छिन्न नहीं विच्छिन्न प्रवाह बतलाता है। प्रती समुत्पाद के इसी विच्छिन्न प्रवाह को लेकर आगे नागार्जुन ने अपने शून्यवाद को विकसित किया ।" इनके मत से प्रतीत्यसमुत्पाद विच्छिन्न प्रवाहरूप है और पूर्वक्षण का उत्तरक्षण से कोई सम्बन्ध नहीं है । पर ये प्रतीत्य शब्द के 'हेतु' कृत्वा' अर्थात् पूर्वक्षण को कारण बनाकर इस सहज अर्थ को भूल जाते हैं । पूर्वक्षण को हेतु बनाए बिना यदि उत्तर का नया ही उत्पाद होता है तो भदन्त नागसेन की कर्म और पुनर्जन्म की सारी व्याख्या आधारशून्य हो जाती है। क्या द्वादशाङ्ग प्रतीत्यसमुत्पाद में विच्छिन्नप्रवाह युक्तिसिद्ध है ? यदि अविद्या के कारण संस्कार उत्पन्न होता है और संस्कार के कारण विज्ञान आदि तो पूर्व और उत्तर का प्रवाह विच्छिन्न कहाँ हुआ ? एक चित्तक्षण की अविद्या उसी चित्तक्षण में ही संस्कार उत्पन्न करती है अन्य चित्तक्षण में नहीं, इसका नियामक वही प्रतीत्य है। जिसको प्रतीत्य जिसका समुत्पाद हुआ है उन दोनों में अतिविच्छेद कहाँ हुआ ? राहुलजी वहीं ( पृ०५१२ ) अनित्यवाद की "बुद्ध का अनित्यवाद भी 'दूसरा ही उत्पन्न होता है। दूसरा ही नष्ट होता है' के कहे अनुसार किसी एक मौलिक तत्र का बाहरी परिवर्तन मात्र नहीं बल्कि एक का बिलकुल नाश और दूसरे का बिलकुल नया उत्पाद है । बुद्ध कार्यकारण की निरतर या अविच्छिन्न सन्तति को नहीं मानते ।” इन शब्दों में व्याख्या करते हैं। राहुलजी यहाँ भी केवल समुत्पाद को ही ध्यान में रखते हैं, उसके मूलरूप प्रतीत्य को सर्वथा भुला देते हैं। कर्म और पुनजन्म की सिद्धि के लिए प्रयुक्त "महाराज, यदि फिर भी जन्म नहीं ग्रहण करे तो मुक्त हो गया; किन्तु चूँकि वह फिर भी जन्म ग्रहण करता है इसलिए (मुक्त) नहीं हुआ ।" इस सन्दर्भ में 'वह फिर भी शब्द क्या अविच्छिन्न प्रवाह को सिद्ध नहीं कर रहे हैं। बौद्धदर्शन का 'अभौतिक अनात्मवादी' नामकरण केवल भौतिकवादी चार्वाक और आत्मनित्यवादी श्रीपनिषदों के निराकरण के लिए प्रयुक्त किया जाना चाहिये, पर वस्तुतः बुद्ध क्षणिकचित्तवादी थे । क्षणिकचित्त को भी अविच्छिन्न सन्तति मानते थे न कि विच्छिन्नप्रवाह आचार्य कमलशील ने तत्त्वसंग्रहपंजिका ( पृ० १८२ ) में कर्तृकर्म सम्बन्धपरीक्षा करते हुए इस प्राचीन लोक के भाव को उद्धृत किया है— " यस्मिन्नेव तु सन्ताने आहिता कर्मवासना । फलं तत्रैव सन्धत्ते कार्पासे रक्तता यथा ॥ " 1 अर्थात् जिस सन्तान में कर्मवासना प्राप्त हुई है उसका फल भी उसी सन्तान में होता है जो लाख के रह से रंगा गया है उसी कपास बीज से उत्पन्न होनेवाली कई लाल होती है अन्य नहीं। राहुलजी इस परम्परा का विचार करें और फिर बुद्ध को विच्छिन्नप्रवाही बताने का प्रयास करें ! हाँ, यह अवश्य था कि वे अनन्त क्षणों में शाश्वत सत्ता रखनेवाला कूटस्थ निष्प पदार्थ स्वीकार नहीं करते थे। पर वर्तमान क्षण अनन्त अतीत के संस्कारों का परिवर्तित पुंज स्वगर्भ में लिए हैं और उपादेव भविष्यक्षण
SR No.007279
Book TitleNyayvinischay Vivaran Part 01
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages618
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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