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प्रस्तावना
परपरिकल्पित लक्षण निरास
बौद्ध निर्विकल्पक ज्ञान को प्रत्यक्ष मानते हैं। कल्पनापोढ और अभ्रान्तज्ञान उन्हें प्रत्यक्ष इष्ट है। शब्दसंसृष्ट ज्ञान विकल्प कहलाता है। निर्विकल्पक शब्दसंसर्ग से शून्य होता है। निर्विकल्पक परमार्थसत् स्वलक्षण अर्थ से उत्पन्न होता है। इसके चार भेद होते हैं-इन्द्रियप्रत्यक्ष, मानसप्रत्यक्ष, स्वसंवेदनप्रत्यक्ष और योगिप्रत्यक्ष । निर्विकल्पक स्वयं व्यवहारसाधक नहीं होता, व्यवहार निर्विकल्पकजन्य सविकल्पक से होता है। सविकल्पक ज्ञान निर्मल नहीं होता । विकल्प ज्ञान की विशदता सविकल्प में झलकती है। ज्ञात होता है कि वेद की प्रमाणता का खण्डन करने के विचार से बौद्धों ने शब्द का अर्थ के साथ वास्तविक सम्बन्ध ही नहीं माना और यावत् शब्दसंसर्गी ज्ञानों को,जिनका समर्थन निर्विकल्पक से नहीं होता अप्रमाण घोषित कर दिया है। इनने उन्हीं ज्ञानों को प्रमाण माना जो साक्षात् या परम्परा से अर्थसामर्थ्यजन्य हैं। निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के द्वारा यद्यपि अर्थ में रहनेवाले क्षणिकत्व आदि सभी धर्मों का अनुभव हो जाता है पर उनका निश्चय यथासंभव विकल्पकज्ञान और अनुमान से ही होता है। नील निर्विक. ल्पक नीलांश का 'नीलमिदम्' इस विकल्पज्ञान द्वारा निश्चय करता है और व्यवहारसाधक होता है तथा क्षणिकांश का 'सर्व क्षणिकं सत्त्वात्' इस अनुमान के द्वारा । चूँ कि निर्विकल्पक 'नीलमिदम्' आदि विकल्पों का उत्पादक है और अर्थस्वलक्षण से उत्पन्न हुआ है अतः प्रमाण है। विकल्पज्ञान अस्पष्ट है क्योंकि वह परमार्थसत् स्वलक्षण से उत्पन्न नहीं हुआ है। सर्वप्रथम अर्थ से निर्विकल्पक ही उत्पन्न होता है। उस निर्विकल्पावस्था में किसी विकल्पक का अनुभव नहीं होता । विकल्प कल्पितसामान्य को विषय करने के कारण तथा निर्विकल्पक के द्वारा गृहीत अर्थ को ग्रहण करने के कारण प्रत्यक्षाभास है।
अकलङ्क देव इसकी आलोचना इस प्रकार करते हैं-अर्थक्रियार्थी पुरुष प्रमाण का अन्वेषण करते हैं। जब व्यवहार में साक्षात् अर्थक्रियासाधकता सविकल्पक में ही है तब क्यों न उसे ही प्रमाण माना जाय ? निर्विकल्पक में प्रमाणता लाने को आख़िर आपको सधिकल्पक ज्ञान तो मामना ही पड़ता है। यदि निर्विकल्प के द्वारा गृहीत नीलाद्यंश को विषय करने से विकल्पज्ञान अप्रमाण है; तब तो अनुमान भी प्रत्यक्ष के द्वारा गृहीत क्षणिकत्वादि को विषय करने के कारण प्रमाण नहीं हो सकेगा। निर्विकल्प से जिस प्रकार नीलाद्यशों में 'नीलमिदम्' इत्यादि विकल्प उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार क्षणिकत्वादि अशों में भी 'क्षणिकमिदम्' इत्यादि विकल्पज्ञान उत्पन्न होना चाहिये। अतः व्यवहारसाधक सविकल्पज्ञान ही प्रत्यक्ष कहा जाने योग्य है। विकल्पज्ञान ही विशदरूप से प्रत्येक प्राणी के अनुभव में आता है, जब कि निर्विकल्पज्ञान अनुभवसिद्ध नहीं है। प्रत्यक्ष से तो स्थिर स्थूल अर्थ ही अनुभव में आते हैं, अतः क्षणिक परमाणु का प्रतिभास कहना प्रत्यक्षविरुद्ध है। निर्विकल्पक को स्पष्ट होने से तथा सविकल्पक को अस्पष्ट होने से विषयभेद भी मानना ठीक नहीं है, क्योंकि एक ही वृक्ष दूरवर्ती पुरुष को अस्पष्ट तथा समीपवर्ती को स्पष्ट दीखता है। आद्य-प्रत्यक्षकाल में भी कल्पनाएँ बराबर उत्पन्न तथा विनष्ट तो होती ही रहती हैं, भले ही वे अनुपलक्षित रहें। निर्विकल्प से सविकल्प की उत्पत्ति मानना भी ठीक नहीं है। क्योंकि यदि अशब्द निर्विकल्पक से सशब्द विकल्पज्ञान उत्पन्न हो सकता है तो शब्दशून्य अर्थ से ही विकल्पक की उत्पत्ति मानने में क्या बाधा है ? अतः मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्तादि यावद्विकल्पज्ञान संवादी होने से प्रमाण हैं। जहाँ ये विसंवादी हों वहीं इन्हें अप्रमाण कह सकते हैं। निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में अर्थक्रियास्थिति अर्थात् अर्थक्रियासाधकत्व रूप अविसंवाद का लक्षण भी नहीं पाया जाता, अतः उसे प्रमाण कैसे कह सकते हैं? शब्दसंसृष्ट ज्ञान को विकल्प मानकर अप्रमाण कहने से शास्त्रोपदेश से क्षणिकत्वादि की सिद्धि नहीं हो सकेगी।
मानस प्रत्यक्ष निरास-बौद्ध इन्द्रियज्ञान के अनन्तर उत्पन्न होनेवाले विशदज्ञान को, जो कि उसी इन्द्रियज्ञान के द्वारा ग्राह्य अर्थ के अनन्तरभावी द्वितीयक्षण को जानता है, मानस प्रत्यक्ष कहते हैं। अकलक देव कहते हैं कि एक ही निश्चयात्मक अर्थसाक्षात्कारी ज्ञान अनुभव में आता है। आपके द्वारा बताये गये मानस प्रत्यक्ष का तो प्रतिभास ही नहीं होता। 'नीलमिदम्' यह विकल्प ज्ञान भी मानस