SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ न्यायविनिश्चयविवरण में अपना आकार अर्पित भी कर दें, पर अतीत और अनागत आदि अविद्यमान अर्थ ज्ञान में अपना आकार कैसे दे सकते हैं? विषयज्ञान और विषयज्ञानज्ञान में भी अन्तर ज्ञान की अपनी योग्यता से ही हो सकता है। आकार मानने पर भी अन्ततः स्वयोग्यता स्वीकार करनी ही पड़ती है। अतः बौद्धपरिकल्पित साकारता अनेक दूषणों से दूषित होने के कारण ज्ञान का धर्म नहीं हो सकती। ज्ञान की साकारता का अर्थ है ज्ञान का उस पदार्थ का निश्चय करना या उस पदार्थ की ओर उपयुक्त होना। निर्विकल्पक अर्थात् शब्दसंसर्ग की योग्यता से भी रहित कोई ज्ञान हो सकता है यह अनुभवसिद्ध नहीं है। शान अर्थ को जानता है-मुख्यतया दो विचारधाराएँ इस सम्बन्ध में हैं । एक यह कि-ज्ञान अपने से भिन्न सत्ता रखनेवाले जड़ और चेतन पदार्थों को जानता है। इस विचारधारा के अनुसार जगत् में अनन्त चेतन और अनन्त अचेतन पदार्थों की स्वतन्त्र सत्ता है। दूसरी विचारधारा बाह्य जड़ पदार्थों की पारमार्थिक सत्ता नहीं मानती, किन्तु उनका प्रातिभासिक अस्तित्व स्वीकार करती है। इनका मत है कि घटपटादि बाह्य पदार्थ अनादिकालीन विचित्र वासनाओं के कारण या माया अविद्या आदि के कारण विचित्र रूप में प्रतिभासित होते हैं। जिस प्रकार स्वप्न या इन्द्रजाल में बाह्य पदार्थों का अस्तित्व न होने पर भी अनेकविध अर्थक्रियाकारी पदार्थों का सत्यवत् प्रतिभास होता है उसी तरह अविद्या वासना के कारण नानाविध विचित्र अर्थों का प्रतिभास हो जाता है। इनके मत से मात्र चेतनतत्त्व की ही पारमार्थिक सत्ता है। इसमें भी अनेक मतभेद हैं। वेदान्ती एक नित्य व्यापक ब्रह्म का ही पारमार्थिक अस्तित्व स्वीकार करते हैं । यही ब्रह्म नानाविध जीवात्माओं और अनेक प्रकार के घटपटादिरूप बाह्य अर्थों के रूप में प्रतिभासित होता है। संवेदनाद्वैतवादी क्षणिक परमाणुरूप अनेक ज्ञानक्षणों का पारमार्थिक अस्तित्व मानते हैं। इनके मत से अनेक ज्ञानसन्ताने पृथक् पृथक् पारमार्थिक अस्तित्व रखती हैं। अपनी अपनी वासनाओं के अनुसार ज्ञानक्षण नाना पदार्थों के रूप में भासित होता है। पहिली विचारधारा का अनेकविध विस्तार न्यायवैशेषिक, सांख्ययोग, जैन, सौत्रान्तिक बौद्ध आदि दर्शनों में देखा जाता है। बाह्यार्थलोप की दूसरी विचारधारा का आधार यह मालूम होता है कि-प्रत्येक व्यक्ति अपनी कल्पना के अनुसार पदार्थों में संकेत करके व्यवहार करता है । जैसे एक पुस्तक को देखकर उस धर्म का अनुयायी उसे धर्मग्रन्थ समझकर पूज्य मानता है । पुस्तकालयाध्यक्ष उसे अन्य पुस्तकों की तरह सामान्य पुस्तक समझता है, तो दुकानदार उसे रद्दी के भाव खरीद कर पुड़िया बाँधता है । भंगी उसे कूड़ा-कचरा मानकर झाड़ सकता है। गाय भैंस आदि पशुमात्र उसे पुद्गलों का पुंज समझकर घास की तरह खा सकते हैं तो दीमक आदि कीड़ों को उसमें पुस्तक यह कल्पमा ही नहीं होगी। अब आप विचार कीजिए कि पुस्तक में, धर्मग्रन्थ, पुस्तक, रही, कचरा, घास की तरह खाद्य आदि संज्ञाएँ तत्तद्व्यक्तियों के ज्ञान से ही आई हैं अर्थात् धर्मग्रन्थ पुस्तक आदि का सद्भाव उन व्यक्तियों के ज्ञान में है, बाहिर नहीं। इस तरह धर्मग्रन्थ पुस्तक आदि की व्यवहारसत्ता है परमार्थसत्ता नहीं। यदि धर्मग्रन्थ पुस्तक आदि की परमार्थ सत्ता होती तो वह प्राणिमात्र-गाय, भैंस को भी धर्मग्रन्थ या पुस्तक दिखनी चाहिये थी। अतः जगत् केवल कल्पनामा है, उसका वास्तविक अस्तित्व नहीं। ___ इसी तरह घट एक है या अनेक । परमाणुओं का संयोग कदेश से होता है या सर्वदेश से। यदि एकदेश से तो छह परमाणुओं से संयोग करने वाले मध्य परमाणु में छह अंश मानने परमे । यदि दो परमाणुओं का सर्वदेश से संयोग होता है तो अणुओं का पिंड अणुमात्र हो जायगा। इस तरह जैसे जैसे बाह्य पदार्थों का विचार करते हैं वैसे वैसे उनका अस्तित्व सिद्ध नहीं होता। बाह्य पदार्थों का अस्तित्व तदाकार ज्ञान से सिद्ध किया जाता है। यदि नीलाकार ज्ञान है तो नील नाम के बाह्य पदार्थ की क्या आवश्यकता ? यदि नीलाकार ज्ञान नहीं तो नील की सत्ता ही कैसे सिद्ध की जा सकती है? अतः ज्ञान ही बाह्य और आन्तर ग्राह्य और ग्राहक रूप में स्वयं प्रकाशमान है कोई बाह्यार्थ नहीं । पदार्थ और ज्ञान का सहोपलम्भ नियम है अतः दोनों अभिन्न हैं ।
SR No.007279
Book TitleNyayvinischay Vivaran Part 01
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages618
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy