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प्रस्तावना
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का नाम ज्ञान' इस बाह्यपरिधि में आ गया। इस सीमोल्लंघन का दार्शनिक प्रयोजन बौद्धादि सम्मत निर्विकल्पक की प्रमाणता का निराकरण करना ही है।
अकलङ्कदेव ने विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष बताते हुए जो ज्ञान का साकार विशेषण दिया है वह उपर्युक्त अर्थ को द्योतन करने के ही लिए ।
बौद्ध क्षणिक परमाणु रूप चित्त या जड़ क्षणों को स्वलक्षण मानते हैं। यही उनके मत में परमार्थसत् है, यही वास्तविक अर्थ है । यह स्वलक्षण शब्दशून्य है, शब्द के अगोचर है। शब्द का वाच्य इनके मत से बुद्धिगत अभेदांश ही होता है। इन्द्रिय और पदार्थ के सम्बन्ध के अनन्तर निर्विकल्पक दर्शन उत्पन्न होता है । यह प्रत्यक्ष प्रमाण है। इसके अनन्तर शब्दसङ्केत और विकल्पवासना आदि का सहकार पाकर शब्दसंसर्गी सविकल्पक ज्ञान उत्पन्न होता है। शब्दसंसर्ग न होने पर भी शब्दसंसर्ग की योग्यता जिस ज्ञान में आ जाय उसे विकल्प कहते हैं। किसी भी पदार्थ को देखने के बाद पूर्वदृष्ट तत्सरश पदार्थ का स्मरण होता है, तदनन्तर तद्वाचक शब्द का स्मरण, फिर उस शब्द के साथ वस्तु का योजन, तब यह घट है इत्यादि शब्द का प्रयोग । वस्तु दर्शन के बाद होनेवाले-पूर्वदृष्ट स्मरण आदि सभी व्यापार सविकल्पक की सीमा में आते हैं । तात्पर्य यह कि-निर्विकल्पक दर्शन वस्तु के यथार्थ स्वरूप का अवभासक होने से प्रमाण है।
सविकल्पक ज्ञान शब्दवासना से उत्पन्न होनेके कारण वस्तु के यथार्थ स्वरूप को स्पर्श नहीं करता, अत एव अप्रमाण है। इस निर्विकल्पक के द्वारा वस्तु के समग्ररूप का दर्शन हो जाता है, परन्तु निश्चय यथासम्भव सविकल्पक ज्ञान और अनुमान के द्वारा ही होता है।
अकलंकदेव इसका खण्डन करते हुए लिखते हैं कि किसी भी ऐसे निर्विकल्पक ज्ञान का अनुभव नहीं होता जो निश्चयात्मक न हो। ___सौत्रान्तिक बाह्यार्थवादी हैं। इनका कहना है कि यदि ज्ञान पदार्थ के आकार न हो तो प्रतिकर्मव्यवस्था अर्थात् घटज्ञान का विषय घट ही होता है पट नहीं-नहीं हो सकेगी। सभी पदार्थ एक ज्ञान के विषय या सभी ज्ञान सभी पदार्थों को विपय करनेवाले हो जायँगे। अतः ज्ञान को साकार मानना आवश्यक है। यदि साकारता नहीं मानी जाती तो विषयज्ञान और विषयज्ञानज्ञान में कोई भेद नहीं रहेगा। इनमें यही भेद है कि एक मात्रविषय के आकार है तथा दूसरा विषय और विषयज्ञान दो के आकार है। विषय की सत्ता सिद्ध करने के लिए ज्ञान को साकार मानना नितान्त आवश्यक है।
अकलंकदेव ने साकारता के इस प्रयोजन का खण्डन किया है। उन्होंने लिखा है कि विषय प्रतिनियम ज्ञान की अपनी शक्ति या क्षयोपशम के अनुसार होता है। जिस ज्ञान में पदार्थ को जानने की जैसी योग्यता है वह उसके अनुसार पदार्थ को जानता है। तदाकारता मानने पर भी यह प्रश्न ज्यों का त्यों बना रहता है कि ज्ञान अमुक पदार्थ के ही आकार को क्यों ग्रहण करता है ? अन्य पदार्थों के आकार को क्यों नहीं ? अन्त में ज्ञान गत शक्ति ही विषयप्रतिनियम करा सकती है तदाकारता आदि नहीं।
'जो ज्ञान जिस पदार्थ से उत्पन्न हुआ है वह उसके आकार होता है। इस प्रकार तदुत्पत्ति से भी आकारनियम नहीं बन सकता ; क्योंकि ज्ञान जिस प्रकार पदार्थ से उत्पन्न होता है उसी तरह प्रकाश और इन्द्रियों से भी । यदि तदुत्पत्ति से साकारता आती है तो जिस प्रकार ज्ञान घटाकार होता है उसी प्रकार उसे इन्द्रिय तथा प्रकाश के आकार भी होना चाहिये। अपने उपादानभूत पूर्वज्ञान के आकार को तो उसे अवश्य ही धारण करना चाहिये। जिस प्रकार ज्ञान घट के घटाकार को धारण करता है उसी प्रकार वह उसकी जड़ता को क्यों नहीं धारण करता ? यदि घट के आकार को धारण करने पर भी जड़ता अगृहीत रहती है तो घट और उसके जडत्व में भेद हो जायगा। यदि घट की जडता अतदाकार ज्ञान से जानी जाती है तो उसी प्रकार घट भी अतदाकार ज्ञान से जाना जाय। वस्तुमात्र को निरंश माननेवाले बौद्ध के मत में वस्तु का खण्डशः भाग तो नहीं ही होना चाहिये। समानकालीन पदार्थ कदाचित् ज्ञान