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न्यायविनिश्चयविवरण इससे पृथक किसी अचेतन ज्ञान की आवश्यकता ही नहीं है। अतः ज्ञानमात्र स्वसंवेदी है। वह अपने जानने के लिए किसी अन्य ज्ञान की अपेक्षा नहीं करता।
ज्ञान की साकारता-ज्ञान की साकारता का साधारण अर्थ यह समझ लिया जाता है कि जैसे दर्पण में घट पट आदि पदार्थों का प्रतिबिम्ब आता है और दर्पण का अमुक भाग घटछायाक्रान्त हो जाता है उसी तरह ज्ञान भी घटाकार हो जाता है अर्थात् घट का प्रतिबिम्ब ज्ञान में पहुँच जाता है। पर वास्तव बात ऐसी नहीं है । घट और दर्पण दोनों मूर्त और जड़ पदार्थ हैं, उनमें एक का प्रतिबिम्ब दूसरे में पड़ सकता है , किन्तु चेतन और अमूर्त ज्ञान में मूर्त जड़ पदार्थ का प्रतिबिम्ब नहीं आ सकता और न अन्य चेतनान्तर का ही। ज्ञान के घटाकार होने का अर्थ है-ज्ञान का घट को जानने के लिए उपयुक्त होना अर्थात् उसका निश्चय करना। तत्वार्थवार्तिक (१।६) में घट के स्वचतुष्टय का विचार करते हुए लिखा है कि घट शब्द सुनने के बाद उत्पन्न होनेवाले घट ज्ञान में जो घटविषयक उपयोगाकार है वह घट का स्वात्मा है और बाह्यघटाकार परात्मा । यहाँ जो उपयोगाकार है उसका अर्थ घट की ओर ज्ञान के व्यापार का होना है न कि ज्ञान का घट जैसा लम्बा चौड़ा या वजनदार होना । आगे फिर लिखा है कि"चैतन्यशक्तावाकारौ ज्ञानाकारो ज्ञेयाकारश्च । अनुपयुक्तप्रतिबिम्बाकारादर्शतलबत् ज्ञानाकारः, प्रतिबिम्बाकारपरिणतादर्शतलवत् ज्ञेयाकारः। तत्र ज्ञेयाकारः स्वात्मा ।' अर्थात् चैतन्यशक्ति के दो आकार होते हैं एक ज्ञानाकार और दूसरा ज्ञेयाकार । ज्ञानाकार प्रतिबिम्बशून्य शुद्ध दर्पण के समान पदार्थविषयक व्यापार से रहित होता है । ज्ञेयाकार सप्रतिबिम्ब दर्पण की तरह पदार्थविषयक व्यापार से सहित होता है। साकारता के सम्बन्ध में जो दर्पण का दृष्टान्त दिया जाता है उसी से यह भ्रम हो जाता है कि-ज्ञान में दर्पण के समान लम्बा चौड़ा काला प्रतिबिम्ब पदार्थ का आता है और इसी कारण ज्ञान साकार कहलाता है। दृष्टान्त जिस अंश को समझाने के लिए दिया जाता है उसको उसी अंश के लिए लागू करना चाहिए। यहाँ दर्पण दृष्टान्त का इतना ही प्रयोजन है कि चैतन्यधारा ज्ञेय को जानने के समय ज्ञेयाकार होती है, शेष समय में ज्ञानाकार।
धवला (प्र. पु. पृ० ३८०) तथा जयधवला (प्र. पु. पृ० ३३७ ) में दर्शन और ज्ञान में निराकारता और साकारता प्रयुक्त भेद बताते हुए स्पष्ट लिखा है कि-जहाँ ज्ञान से पृथक् वस्तु कर्म अर्थात् विषय हो वह साकार है और जहाँ अन्तरङ्ग वस्तु अर्थात् चैतन्य स्वयं चैतन्य रूप ही हो वह निराकार । निराकार दर्शन, इन्द्रिय और पदार्थ के सम्पर्क के पहिले होता है जब कि साकार ज्ञान इन्द्रियार्थसन्निपात के बाद । अन्तरङ्गविषयक अर्थात् स्वावभासी उपयोग को अनाकार तथा बाह्यावभासी अर्थात् स्व से भिन्न अर्थ को विषय करनेवाला उपयोग साकार कहलाता है। उपयोग की ज्ञानसंज्ञा वहाँ से प्रारम्भ होती है जहाँ से वह स्वव्यतिरिक्त अन्य पदार्थ को विषय करता है। जब तक वह मात्र स्वप्रकाश निमग्न है तब तक यह दर्शन-निराकार कहलाता है। इसीलिए ज्ञान में ही सम्यक्त्व और मिथ्यात्व प्रमाणत्व
और अप्रमाणत्व ये दो विभाग होते हैं। जो ज्ञान पदार्थ की यथार्थ उपलब्धि कराता है वह प्रमाण है अन्य अप्रमाण । पर दर्शन सदा एकविध रहता है उसमें कोई दर्शन प्रमाण और कोई दर्शन अप्रमाण ऐसा जातिभेद नहीं होता । चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन आदि भेद तो आगे होनेवाली तत्तत् ज्ञानपर्यायों की अपेक्षा हैं । स्वरूप की अपेक्षा उनमें इतना ही भेद है कि एक उपयोग अपने चाक्षुषज्ञानोत्पादकशक्तिरूप स्वरूप में मग्न है तो दूसरा अन्य स्पर्शन आदि इन्द्रियों से उत्पन्न होनेवाले ज्ञान के जनक स्वरूप में लीन है, तो अन्य अवधिज्ञानोत्पादक स्वरूप में और अन्य केवल ज्ञानसहभावी स्वरूप में निमग्न है। तात्पर्य यह कि-उपयोग का स्व से भिन्न किसी भी पदार्थ को विषय करना ही साकार होना है, न कि दर्पण की तरह प्रतिबिम्बाकार होना।
निराकार और साकार या ज्ञान और दर्शन का यह सैद्धान्तिक स्वरूपविश्लेषण दार्शनिक युग में अपनी उस सीमा को लाँधकर 'बाह्यपदार्थ के सामान्यावलोकन का नाम दर्शन और विशेष परिज्ञान