________________
प्रस्तावना
४१
दुःख से आत्मा को हर्प विपादादि नहीं होना चाहिए। यदि अपने सुख को अनुमानग्राह्य या ज्ञानान्तरग्राह्य माना जाय और उससे आत्मा में हर्षविपादादि की सम्भावना की जाय तो अन्य सुखी आत्मा के सुख का अनुमान करके हमें हर्ष होना चाहिए अथवा केवली को, जिसे सभी जीवों के सुखदुःखादि का प्रत्यक्ष ज्ञान हो रहा है, हमारे सुखदुःख से हर्ष विपादादि उत्पन्न होने चाहिए। चूँकि हमारे सुखदुःख से हमें ही हर्षविपादादि होते हैं अन्य किसी अनुमान करनेवाले या प्रत्यक्ष करनेवाले आत्मान्तर को नहीं, अतः यह मानना ही होगा कि वे हमारे स्वयं प्रत्यक्ष हैं अर्थात् वे स्वप्रकाशी हैं ।
यदि ज्ञान को परोक्ष माना जाता है तो आत्मान्तर की बुद्धि का अनुमान नहीं किया जा सकता । पहिले हम स्वयं अपनी आत्मा में ही जब तक बुद्धि और वचनादि व्यापारों का अविनाभाव ग्रहण नहीं करेंगे तब तक वचनादि पेष्टाओं से अन्य बुद्धि का अनुमान कैसे कर सकते हैं और अपनी आत्मा में जब तक बुद्धि का स्वयं साक्षात्कार नहीं हो जाता तब तक अविनाभाव का ग्रहण असम्भव ही है । अन्य आत्माओं में तो बुद्धि अभी असिद्ध ही है। आत्मान्तर में बुद्धि का अनुमान नहीं होने पर समल गुरु शिष्य देनलेन आदि व्यवस्थाओं का लोप हो जायगा ।
यदि अज्ञात या अप्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा अर्थ बोध माना जाता है तो सर्वज्ञ के ज्ञान के द्वारा हमें सर्वार्थज्ञान होना चाहिए। हमें ही क्यों, सबको सबके ज्ञान के द्वारा अर्थबोध हो जाना चाहिये । अतः ज्ञान को स्वसंवेदी माने विना ज्ञान का सद्भाव तथा उसके द्वारा प्रतिनियत अर्थबोध नहीं हो सकता । अतः यह आवश्यक है कि उसमें अनुभवसिद्ध आत्मसंवेदित्व स्वीकार किया जाय ।
1
नैयायिक का ज्ञान को ज्ञानान्तरवेद्य मानना उचित नहीं है, क्योंकि इसमें अनवस्था नामका महान् दूपण आता है। जबतक एक भी ज्ञान स्वसंवेदी नहीं माना जाता तब तक पूर्व पूर्व ज्ञानों का बोध करने के लिये उत्तर उत्तर शानों की कम्पना करनी ही होगी। क्योंकि जो भी ज्ञानव्यक्ति अज्ञात रहेगी वह स्वपूर्व ज्ञान व्यक्ति की वैदिका नहीं हो सकती और इस तरह प्रथम ज्ञान के अज्ञात रहने पर उसके द्वारा पदार्थ का बोध नहीं हो सकेगा। एक ज्ञान के जानने के लिए ही जब इस तरह अनन्त ज्ञानप्रवाह चलेगा तब अन्य पदार्थों का ज्ञान कब उत्पन्न होगा ? थक करके या अरुचि से या अन्य पदार्थ के सम्पर्क से पहिली ज्ञानधारा को अधूरी छोड़कर अनवस्था का वारण करना इसलिये युक्तियुक्त नहीं है कि जो दशा प्रथम ज्ञान की हुई है और जैसे वह बीचमें ही अज्ञात दशा में लटक रहा है वही दशा अन्य ज्ञानों की भी होगी। ईश्वर का ज्ञान यदि अस्वसंवेदी माना जाता है तो उसमें सर्वज्ञता सिद्ध नहीं हो सकेगी, क्योंकि एक तो उसने अपने स्वरूप को ही स्वयं नहीं जाना दूसरे अप्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा वह जगत् का परिज्ञान नहीं कर सकता। ईश्वर के दो नित्य ज्ञान इसलिए मानना कि एक से वह जगत् को जानेगा तथा दूसरे से ज्ञान को निरर्थक है; क्योंकि दो ज्ञान एक साथ उपयोग दशा में नहीं रह सकते। दूसरे यदि वह ज्ञान को जानने वाला द्वितीय ज्ञान स्वयं अपने स्वरूप का प्रत्यक्ष नहीं करता तो उससे प्रथम अज्ञान का प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा। यदि उसका प्रत्यक्ष किसी तृतीय ज्ञान से माना जाय तो अनवस्था दूषण होगा। यदि द्वितीय ज्ञान को स्वसंवेदी मानते हैं तो प्रथम ज्ञान को ही स्वसंवेदी मानने में क्या बाधा है?
सांख्य के मत में यदि ज्ञान प्रकृति का विकार होने से अचेतन है, यह अपने स्वरूप को नहीं जानता, उसका अनुभव पुरुष के संचेतन के द्वारा होता है तो ऐसे अचेतन ज्ञान की कल्पना का क्या प्रयोजन है? ये पुरुष का संचेतन ज्ञान के स्वरूप का संवेदन करता है वही पदार्थों को भी जान सकता है। पुरुष का संचेतन यदि स्वसंवेदी नहीं है तो इस अकिचिकर ज्ञान की सत्ता भी किससे सिद्ध की जायगी ? अतः स्वार्थसंवेदक पुरुषानुभव से भिन्न किसी प्रकृतिविकारात्मक अचेतन ज्ञान की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। करण या माध्यम के लिए इन्द्रियों और मन मौजूद है। वस्तुतः ज्ञान और पुरुषगतसं चेतन पुरुप, जिसे सांख्य कूटस्थ नित्य मानता है, स्वयं परिणामी है पर्याय को छोड़ धारण करता है। संचेतना ऐसे परिणामनित्य पुरुष का ही धर्म
हो सकती है।
ये दो जुदा हैं ही नहीं कर उत्तर पर्याय को
६