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प्रस्तावना
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अकलङ्कदेव ने इसकी आलोचना करते हुए लिखा है कि- अद्वय तत्त्व स्वतः प्रतिभासित होता है या परतः ? यदि स्वतः; तो किसी को विवाद नहीं होना चाहिए। नित्य ब्रह्मवादी की तरह क्षणिक विज्ञानवादी भी अपने तत्व का स्वतः प्रतिभास कहते हैं। इनमें कौन सत्य समझा जाय ? परतः प्रतिभास पर के बिना नहीं हो सकता । पर को स्वीकार करने पर अद्वैत तत्त्व नहीं रह सकता। विज्ञानवादी इन्द्रजाल या स्वप्न का दृष्टान्त देकर बाह्य पदार्थ का लोप करना चाहते हैं। किन्तु इन्द्रजालप्रतिभासित घट और बाह्यसत् घट में अन्तर तो स्त्री बाल गोपाल आदि भी कर लेते हैं। वे घट पट आदि बाह्य पदार्थों में अपनी इष्ट अर्थक्रिया के द्वारा आकांक्षाओं को शान्त कर सन्तोष का अनुभव करते हैं जब कि इन्द्रजाल या मायादृष्ट पदार्थों से न तो अर्थक्रिया ही होती है और न तजन्य सन्तोषानुभव ही। उनका काल्पनिकपना तो प्रतिभास काल में ही ज्ञात हो जाता है। धर्मग्रन्थ, पुस्तक, रद्दी आदि संज्ञाएँ मनुष्यकृत और काल्पनिक हो सकती हैं पर जिस वजनवाले रूपरसगन्धस्पर्शवाले स्थूल पदार्थ में ये संज्ञाएँ की जाती हैं वह तो काल्पनिक नहीं है। वह तो ठोस, वजनदार, सप्रतिघ, रूपरसादिगुणों का आधार परमार्थसत् पदार्थ है। उस पदार्थ को अपने अपने संकेत के अनुसार कोई धर्मग्रन्थ कहे, कोई पुस्तक, कोई बुक, कोई किताब या अन्य कुछ कहे । ये संकेत व्यवहार के लिए अपनी परम्परा और वासनाओं के अनुसार होते हैं उसमें कोई आपत्ति नहीं है। हटिसृष्टि का अर्थ भी यही है कि सामने रखे हुए परमार्थसत् ठोस पदार्थ में अपनी दृष्टि के अनुसार जगत् व्यवहार करता है। उसकी व्यवहारसंज्ञाएँ प्रातिभासिक हो सकती हैं पर वह पदार्थ जिसमें ये संज्ञाएँ की जाती हैं, ब्रह्म या विज्ञान की तरह ही परमार्थसत् है । नीलाकार ज्ञान से तो कपड़ा नहीं रगा जा सकता ? कपड़ा रंगने के लिए ठोस परमार्थसत् जड़ नील चाहिए जो ऐसे ही कपड़े के प्रत्येकतन्तु को नीला बनायगा। यदि कोई परमार्यसत् नील अर्थ न हो तो नीलाकार वासना कहाँ से उत्पन्न हुई? वासना तो पूर्वानुभव की उत्तर दशा है। यदि जगत् में नील अर्थ नहीं है तो ज्ञान में नीलाकार कहाँ से आया? वासना नीलाकार कैसे बन गई ? तात्पर्य यह कि व्यवहार के लिए की जानेवाली संज्ञाएँ. इष्ट-अनिष्ट, सुन्दर असुन्दर, आदि कल्पनाएँ भले ही विकल्पकल्पित हो और रष्टिसृष्टि की सीमा में हों पर जिस आधार पर ये सब कल्पनाएँ कल्पित होती हैं वह आधार ठोस और सत्य है। विष के ज्ञान से मरण नहीं हो सकता। विषका खानेवाला और विष दोनों ही परमार्थसत् हैं तथा विप के संयोग से होनेवाले शरीर. गत रासायनिक परिणमन भी । पर्वत मकान नदी आदि पदार्थ यदि ज्ञानात्मक ही हैं तो उनमें मर्तत्व स्थलव सप्रतिघत्व आदि धर्म कैसे आ सकते हैं ? ज्ञानस्वरूप नदी में स्नान या ज्ञानात्मक जल से नषा शान्ति अथवा ज्ञानात्मक पत्थर से सिर तो नहीं फूट सकता ? यदि अद्वयज्ञान ही है तो शास्त्रोपदेश आदि निरर्थक हो जायेंगे । परप्रतिपत्ति के लिए ज्ञान से अतिरिक्त वचन की सत्ता आवश्यक है। अद्वयज्ञान में प्रतिपत्ता, प्रमाण, विचार आदि प्रतिभास की सामग्री तो माननी ही पड़ेगी अन्यथा प्रतिभास कैसे होगा? अद्वयज्ञान में अर्थ-अनर्थ, तत्व-अक्तव आदि की व्यवस्था न होने से तद्ग्राही ज्ञानों में प्रमाणता या अप्रमाणता का निश्चय कैसे किया जा सकेगा ? ज्ञानाद्वैत की सिद्धि के लिए अनुमान के अङ्गभूत साध्य साधन दृष्टान्त आदि तो स्वीकार करने ही होंगे अन्यथा अनुमान कैसे हो सकेगा ? सहोपलम्भ-एक साथ उपलब्ध होना-से अभेद सिद्ध नहीं किया जा सकता; कारण दो भिन्नसत्ताक पदार्थों में ही एक साथ उपलब्ध होना कहा जा सकता है । ज्ञान अन्तरंग में चेतन रूप से तथा अर्थ बहिरङ्ग में जड़रूप से अनुभव में आता है अतः इनका सहीपलम्भ असिद्ध भी है । अर्थशून्य ज्ञान स्वाकारतया तथा ज्ञानशून्य अर्थ अपने अर्थरूप में अस्तित्व रखते ही हैं भले ही हमें वे अज्ञात हो । यदिहम बाह्यपदार्थों का इदमित्थंरूप निरूपण या निर्वचन नहीं कर सकते तो इसका यह तात्पर्य नहीं है कि उन पदार्थों का अस्तित्व ही नहीं है। अनन्तधर्मात्मक पदार्थ का पूर्ण निरूपण तो सम्भव ही नहीं है। शब्द या ज्ञान की अशक्ति के कारण पदार्थों का लोप नहीं किया जा सकता। नीलाकारज्ञान रहने पर भी कपड़ा रंगने को नीलपदार्थ की नितान्त आवश्यकता है। ज्ञान में नीलाकार भी बिना नील के नहीं आ सकता। अनेक परमाणुओं से जो स्कन्ध बनता है उस स्कन्ध का कोई पृथक् अस्तित्व नहीं है उन्हीं परमाणुओं का कथञ्चित्तादात्म्य सम्बन्ध