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न्यायविनिश्चयविवरण
स्वयं आत्मसात् करके ही व्यवस्थित ढंग से युक्तियों का जाल बिछाते हैं जिससे प्रतिवादी को निकलने का अवसर ही नहीं मिल पाता ।
सांख्य के पूर्वपक्ष में (०२३१) योगभाज्य का उल्लेख 'विन्ध्यवासिनो भाष्यम्' शब्द से किया है। सांख्यकारिका के एक प्राचीन निबन्ध से (४० २३४) भोग की परिभाषा उद्धृत की है।
बौद्धमतसमीक्षा में धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक और प्रज्ञाकर के वार्तिकालङ्कार की इतनी गहरी और विस्तृत आलोचना अन्पत्र देखने में नहीं आई। वार्ताकार का तो आधा सा भाग इसमें आलोचित है। धर्मोत्तर, शान्तभद्र, अचंद आदि प्रमुख बौद्ध ग्रन्थकार इनकी तीखी आलोचना से नहीं टूटे हैं।
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मीमांसादर्शन की समालोचना में शबर उम्बेक प्रभाकर मण्डन कुमारिल आदि का गम्भीर पर्यालोचन है। इसी तरह न्यायवैशेषिक मत में व्योमशिव आत्रेय, भासवंश, विश्वरूप आदि प्राचीन आचायके मत उनके ग्रन्थों से उद्धृत कर के आलोचित हुए हैं। उपनिषदों का वेदमस्तक शब्द से उल्लेख किया गया है। इस तरह जितना परपक्षसमीक्षण का भाग है वह उन उन मतों के प्राचीनतम ग्रन्थों से लेकर ही पूर्वपक्ष में स्थापित करके आलोचित किया गया है ।
स्वपक्षसंस्थापन में समन्तभद्रादि आचार्यों के प्रमाणवाक्यों से पक्ष का समर्थन परिपुष्ट रीति से किया है। जब वादिराज कारिकाओं का व्याख्यान करते हैं तो उनकी अपूर्व वैयाकरणचुन्ता चित्त को विस्मित कर देती है। किसी किसी कारिका के पांच पांच अर्थ तक इन्होंने किए हैं। दो अर्थ तो साधारणतया अनेक कारिकाओं के दृष्टिगोचर होते हैं। काप्यछटा भीर साहित्यसर्जकता तो इनकी पद पद पर अपनी आभा से न्यायभारती को समुज्ज्वल बनाती हुई सहृदयों के हृदय को आह्लादित करती है। सारे विवरण में करीब २०००-२५०० पद्म स्वयं वादिराज के ही द्वारा रचे गए हैं जो इनकी काव्य चातुरी को प्रत्येक पृष्ठ पर मूर्त किए हुए हैं। इनकी तर्कशक्ति अपनी मौलिक है क्या पूर्वपक्ष और क्या उत्तर पक्ष दोनों का बन्धान प्रसाद ओज और माधुर्य से समलङ्कृत होकर तर्कप्रवणता का उच्च अधिष्ठान है। इस श्लोक में कितने ओज के साथ चमक में अर्च का उपहास किया है—
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"अर्चतचटक, तदस्मादुपरम दुस्तकंपक्षयलचलनात् ।
स्याद्वादाचलविदनचुचुर्न तवास्ति नयचक्षुः ॥ ( पृ० ४४९ )
इस तरह समग्र ग्रन्थ का कोई भी पृष्ठ वादिराज की साहित्यप्रवणता शब्द निष्णातता और दार्शनिकता की युगपत् प्रतीति करा सकता है। एकीभावस्तोत्र के अन्त में पाया जानेवाला यह पद्म वादिराज का भूतगुणोद्भावक है मात्र स्तुतिपरक नहीं
"यादिराजमनु शाब्दिकलोको वादिराजमनु तार्किकसिंहः ।
वादिराजमनु काव्यकृतस्ते वादिराजमनु भण्यसहायः ॥"
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बादिराज का एकीभावस्तोत्र उस निष्ठावान् और भक्ति विभोरमानस का परिश्पदन है जिसकी साधना से भय अपना परम लक्ष्य पा सकता है। इस तरह वादिराज तार्किक होकर भी भक्त थे, वैयाकरणare होकर भी काव्यकला के हृदयाह्लादक लीलाधाम थे और थे अकलङ्कन्याय के सफल व्याख्याकार । जैन दर्शन के प्रधागार में वादिराज का न्यायविनिश्वयविवरण अपनी मौलिकता गम्भीरता अनुच्छिष्टता युक्तिप्रवणता प्रमाणसंग्रहता आदि का अद्वितीय उदाहरण है। इसके प्रथम प्रत्यक्ष प्रस्ताव का संक्षि विषयपरिचय इस प्रकार है
प्रत्यक्ष परिच्छेद
न्यायविनिश्रय ग्रन्थ के तीन परिच्छेद हैं-1 प्रत्यक्ष २ अनुमान और २ प्रवचन इस ग्रन्थ में अकलदेव ने न्याय के विनिश्चय करने की प्रतिज्ञा की है वे न्याय अर्थात् स्वाद्वावमुद्रांकित जैन आम्नाय को कलिकाल दोष से गुणद्वेषी व्यक्तियों द्वारा मलिन किया हुआ देखकर विचलित हो उठते हैं और भव्य