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________________ प्रस्तावना "प्रणिपत्य स्थिरभक्त्या गुरून् परानप्युदारवुद्धिगुणान् । न्यायविनिश्चयविवरणमभिरमणीयं मया क्रियते ॥" लघीयस्त्रय की तरह न्यायविनिश्चयविवरण (प्रथमभाग पृ. २२९) में आए हुए 'वृत्तिमध्यवर्तिस्वात्', 'वृत्तिचूर्णीनां तु विस्तारभयानास्माभिर्व्याख्यानमुपदयते' इन अवतरणों से स्पष्ट है कि न्यायविनिश्चय पर अकलङ्कदेव की स्ववृत्ति अवश्य रही है। वृत्ति के मध्य में भी श्लोक थे जो अन्तरश्लोक के नाम से प्रसिद्ध थे। इसके सिवाय वृत्ति के द्वारा प्रदर्शित मूलवार्तिक के अर्थ को संग्रह करनेवाले संग्रहश्लोक भी थे । वादिराजसूरि ने जिन ४८०३ श्लोकों का व्याख्यान विवरण में किया है उनमें अन्तरश्लोक और संग्रहश्लोक भी शामिल हैं । कितने संग्रहश्लोक हैं और कितने अन्तरश्लोक इसका ठीक निर्णय द्वितीयभाग के प्रकाशन के समय हो सकेगा। पर वादिराजसूरि ने वृत्ति या चूर्णिगत सभी श्लोकों का व्याख्यान नहीं किया। पृ० ३०१ में 'तथा च सूक्त चूर्णी देवस्य वचनम्' इस उत्थान वाक्य के साथ "समारोपव्यवच्छेदात्" आदि श्लोक उद्धत है। यदि वादिराजसूरि न्यायविनिश्चय की स्ववृत्ति को ही चूर्णिशब्द से कहते हैं तो कहना होगा कि आपने वृत्ति या चूर्णिगत सभी श्लोकों का व्याख्यान नहीं किया, क्योंकि 'समारोपव्यवच्छेदात्' श्लोक मूल में शामिल नहीं किया गया है। ___इस तरह वृत्ति के यावत् गद्यभाग की तो व्याख्या की ही नहीं गई, सम्भवतः कुछ पद्य भी छूट गए हैं । जैसा कि सिद्धिविनिश्चयटीका (पृ० १२० A) के निम्नलिखित उल्लेखों से स्पष्ट है "तदक्तं न्यायविनिश्चयेन चैतद बहिरेव । किं तर्हि? बहिर्बहिरिव प्रतिभासते। कुत एतत् ? भ्रान्तेः। तदन्यत्र समानम् । इति।" सिद्धिविनिश्चयटीका (पृ. ६९ A) में ही न्यायविनिश्चय के नाम से 'सुखमाल्हादनाकार श्लोक उद्धृत है-"कथमन्यथा न्यायविनिश्चये सहभुवो गुणा इत्यस्य सुखमालादनाकारं विज्ञानं मेयबोधनम् । शक्तिः क्रियानुमेया स्याद यूनः कान्तासमागमे ॥ इति निदर्शनं स्यात् ।" यह श्लोक सिद्धिविनिश्चयटीका के उल्लेखानुसार न्यायविनिश्चय स्ववृत्ति का होना चाहिए। क्योंकि वह 'गुणपर्ययवद्व्यं ते सहक्रमवृत्तयः' (श्लो० ११) के गुण शब्द की वृत्ति में उदाहरणरूप से दिया गया होगा। यह भी सम्भव है कि अकलङ्कदेव ने स्वयं इस श्लोक को वृत्ति में उद्धृत किया हो क्योंकि वादिराज इसे स्याद्वादमहार्णव ग्रन्थ का बताते हैं। यह भी चित्त को लगता है कि न्यायविनिश्चय की उक्त वृत्ति ही सम्भवतः स्याद्वादमहार्णव के नाम से प्रख्यात रही हो। जो हो, पर अभी यह सब साधक प्रमाणों का अभाव होने से सम्भावनाकोटि में ही हैं। न्यायविनिश्चयविवरण की रचना अत्यन्त प्रसन्न तथा मौलिक है। तत्तत् पूर्वपक्षों को समृद्ध और प्रामाणिक बनाने के लिए अगणित ग्रन्थों के प्रमाण उद्धृत किये गये हैं। जहाँ तक मैंने अध्ययन किया है वादिराजसूरि के ऊपर किसी भी दार्शनिक आचार्य का सीधा प्रभाव नहीं है। वे हरएक विषय को इसका न्यायविनिश्चयालङ्कार नाम भी मानकर इसके प्रमाणनिर्णय से पहिले रचे जाने के सम्बन्ध में प्रमाणनिर्णय (पृ. १६) गत यह अवतरण एकीभावस्तोत्र की प्रस्तावना (पृ. १५) में उपस्थित किया है-- ___"अत एव परामर्शात्मकत्वं स्पाष्टयमेव मानसप्रत्यक्षस्य प्रतिपादितमलङ्कारे-इदमित्यादि मज्ज्ञानमभ्या. सात् पुरतः स्थिते । साक्षात्करणतस्तत्र प्रत्यक्ष मानसं मतम् ॥" परन्तु इस अवतरण में अलङ्कार शब्द से न्यायविनिश्चयालङ्कार इष्ट नहीं है क्योंकि यह श्लोक वादिराजसूरि के न्यायविनिश्चयविवरण का नहीं है किन्तु प्रज्ञाकरगुप्तकृत प्रमाणवार्तिकालङ्कार (लिखित पृ. ४) का है, और इसे वादिराज ने न्यायविनिश्चयविवरण (पृ. ११९) में पूर्वपक्षरूप से उद्धृत कया है। वादिराज ने स्वयं न्यायविनिश्चयविवरण में बीसों जगह प्रमाणवार्तिकालङ्कार का 'अलङ्कार' नाम से उल्लेख किया है। अतः न्यायविनिश्चयविवरण का न्यायविनिश्चयालङ्कीर नाम निर्मूल है और मात्र श्रुतिमाधुर्यनिमित्त ही प्रचलित हो गया है।
SR No.007279
Book TitleNyayvinischay Vivaran Part 01
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages618
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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