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न्यायविनिश्चयविवरण
(पृ० १०५, १११) विवरण में मौजूद है और व्याख्या के आधारों से ही उक्त श्लोक को मैंने पहले मूल का माना था। हो सकता है कि वादिराज ने स्वकृत श्लोक का ही तात्पर्योद्घाटन किया हो। अथवा वृत्ति में ही गद्य में उक्त लक्षण हो और वादिराज ने उसे पद्यबद्ध कर दिया हो। जैसा कि लघीयस्त्रय स्ववृत्ति (पृ.२१) में "इन्द्रियार्थज्ञानं स्पष्टं हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थ प्रादेशिक प्रत्यक्षम्" यह इन्द्रियप्रत्यक्ष का लक्षण मिलता है । अथवा इसे ही वादिराज ने पद्यबद्ध कर दिया हो। फलतः हमने इस श्लोक को इस विवरण में वादिराजकृत ही मानकर छोटे टाइप में छापा है। अकलङ्कग्रन्थत्रय की प्रस्ताचना में इस श्लोक के सम्बन्ध में मैंने पं० कैलाशचन्द्रजी के मत की चरचा की थी । अनुसन्धान से उनका मत इस समय उचित मालूम होता है।
अकलङ्कग्रन्थत्रय में मुद्रित कारिका नं. ३८ का 'ग्राह्यभेदो न संवित्ति भिनत्त्याकारभङ्ग्यपि" यह उत्तरार्ध मूल का नहीं है। कारिका नं. १२९ के पूर्वार्ध के बाद “तथा सुनिश्चितस्तैस्त तत्त्वतो विप्रशंसतः" यह उत्तरार्ध मूल का होना चाहिए। इस तरह इस परिच्छेद की कारिकाओं की संख्या १६८३ रह जाती है । प्रस्तुत विवरण में छापते समय कारिकाओं के नम्बर देने में गड़बड़ी हो गई है।
ताडपत्रीय प्रति में प्रायः मूल श्लोकों के पहिले इस प्रकार का चिह्न बना हुआ है, जहाँ पूरे श्लोक आए हैं । कारिका नं०४ पर यह चिह्न नहीं बना है। अकलङ्कग्रन्थत्रय में मुद्रित प्रथम परिच्छेद की कारिकाओं में निम्नलिखित संशोधन होना चाहिए
कारिका नं. १६
-शब्दो
-शक्तो। कारिका नं० २४ -वन्यचे
-वन्त्यचे-। कारिका नं० ३१
न विज्ञाना
न हि ज्ञाना-। कारिका नं० ७०
-मेष निश्चयः -मेष विनिश्चयः। कारिका नं०७८
कथन तत्
कथ ततः। कारिका नं. १०२
द्रुमेष्व
ध्रवेष्व-। कारिका नं. १४०
अतदारम्भ
अतदाभद्वितीय और तृतीय परिच्छेद में मुद्रित कारिकाओं में निम्नलिखित कारिकापरिवर्तनादि हैंकारिका नं० १९४ की रचना-"अतद्धेतुफलापोहः सामान्यं चेदपोहिनाम् । सन्दर्यते यथा बुद्धया न तथाऽप्रतिपत्तितः।" इस प्रकार होनी चाहिए।
__कारिका नं० २८३ के पूर्वार्ध के बाद "चित्रचैत्तविचित्राभदृष्टभङ्गप्रसङ्गतः। स नैकः सर्वथा श्लेषात नानेको भेदरूपतः।" यह कारिका और होनी चाहिए। कारिका नं०३७२ का "पूर्वपक्षमविज्ञाय दूषकोऽपि विदूषकः" यह उत्तरार्ध मूल का नहीं है। कारिका नं० ४३१ के बाद "ततःशब्दार्थयोर्नास्ति सम्बन्धोऽपौरुषेयकः" यह कारिकार्ध और होना चाहिए। कारिका नं० ४७५ के बाद "प्रमा प्रमितिहेतुत्वात् प्रामाण्यमुपगम्यते" यह कारिकार्ध और होना चाहिए। अत: अकलङ्कप्रन्थत्रयगत न्यायविनिश्चय के अङ्कोंके अनुसार संपूर्ण ग्रन्थमें ४८०३ कारिकाएँ फलित होती है।
न्यायविनिश्चय विवरण-न्यायविनिश्चय के पद्य भाग पर प्रबलतार्किक स्याद्वादविद्यापति वादिराजसरि कृत तात्पर्य विद्योतिनी व्याख्यानरत्नमाला उपलब्ध है। जिसका नाम' न्यायविनिश्चय विवरण है। जैसा कि वादिराजकृत इस श्लोक से प्रकट है
१ परम्परागत प्रसिद्धि के अनुसार इसका नाम न्यायकुमुदचन्द्र के न्यायकुमुदचन्द्रोदय की तरह न्यायविनिश्चयालङ्कार रूढ हो गया है। परन्तु वस्तुतः वादिराज के उक्त श्लोक गत उल्लेखानुसार इसका मुख्य आख्यान न्यायविनिश्चयांववरण है ; दूसरे शब्दों में इसे तात्पर्यावद्योतिनी व्याख्यानरत्नमाला भी कह सकते हैं। पर न्यायविनिश्चयालङ्कार नाम का समर्थन किसी भी प्रमाण से नहीं होता। पं. परमानन्दजी शास्त्री सरसावा ने