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________________ प्रस्तावना ३७ । पुरुषों की हितकामना से सम्परज्ञान-वचन रूपी जल से उस न्याय पर आए हुए मल को दूर करके उसको निर्मल बनाने के लिए कृतसङ्कल्प होते हैं जिसके द्वारा वस्तु स्वरूप का निर्णय किया जाय उसे न्याय कहते हैं। अर्थात् न्याय उन उपायोंको कहते हैं जिनसे वस्तु तत्व का निश्रय हो। ऐसे उपाय तत्वार्थ सूत्र (114) में प्रमाण और नय दो ही निर्दिष्ट है। आत्मा के अनन्त गुणों में उपयोग ही एक ऐसा गुण है जिसके द्वारा आत्मा को लक्षित किया जा सकता है। उपयोग अर्थात् चितिशक्ति उपयोग दो प्रकार का है एक ज्ञानोपयोग और दूसरा दर्शनोपयोग एक ही उपयोग जब परपदार्थों के जानने के कारण साकार बनता है तब ज्ञान कहलाता है वही उपयोग जब धाद्यपदार्थों में उपयुक्त न रहकर मात्र चैतन्यरूप रहता है तब निराकार अवस्था में दर्शन कहलाता है । यद्यपि दार्शनिकक्षेत्र में दर्शन की व्याख्या बदली है और पद चैतन्याकार की परिधि को लाँघकर पदार्थों के सामान्यावलोकन तक जा पहुंची है परन्तु सिद्धान्त ग्रन्थों में दर्शन का 'अनुपयुक्त आदर्शतलवत्' ही वर्णन है। सिद्धान्त ग्रन्थों में स्पष्टतया विषय और विपक्ष के सन्निपात के पहिले दर्शन का काल बताया है। जब तक आत्मा एकपदार्थविषयकज्ञानीपयोग से च्युत होकर दूसरे पदार्थविषयक उपयोग में प्रवृत्त नहीं हुआ तब तक बीच की निराकार अवस्था दर्शन कही जाती है। इस अवस्था में चैतन्य निराकार या चैतन्याकार रहता है। दार्शनिक प्र में दर्शन विषयविषयी के सन्निपात के अनन्तर वस्तु के सामान्यावलोकन रूप में वर्णित है। और वह है बौद्धसम्मत निर्विकल्पक ज्ञान और नैयाधिकादिसम्मत निर्विकल्पक ज्ञान की प्रमाणता का निराकरण करने के लिए। इसका यही तात्पर्य है कि बद्धादि जिस निर्विकल्पक को प्रमाण मानते हैं जैन उसे दर्शनकोटि में गिनते हैं और वह प्रमाण की सीमा से बहिर्भूत है। अस्तु, उपायतत्त्व में ज्ञान ही आता है। जब ज्ञान वस्तु के पूर्ण रूप को जानता है तब प्रमाण कहा जाता है तथा जब एक देश को जानता है तब नय । प्रमाण का लक्षण साधारणतया 'प्रमाकरणं प्रमाणम्' यह सर्व स्वीकृत है। विवाद यह है कि करण कीन हो ? नैयायिक सन्निकर्ष और ज्ञान दोनों का करण रूप से निर्देश करते हैं । परन्तु जैन परम्परा में अज्ञान निवृत्ति रूप प्रमिति का करण ज्ञान को मानते हैं । आचार्य समन्तभद्र और सिद्धसेन ने प्रमाण के लक्षण में 'स्वपरावभासका पद का समावेश किया है। इस पद का तात्पर्य है कि प्रमाण को 'स्व' और 'पर' दोनों का निश्चय करानेवाला होना चाहिए । यद्यपि अकलदेव और माणिक्यनन्दी ने प्रमाण के लक्षण में 'अनधिगतार्थमाही' और 'अपूर्वार्धव्यवसायात्मक' पदों का निवेश किया है, पर यह सर्वस्वीकृत नहीं हुआ। आचार्य हेमचन्द्र ने तो 'स्वावभासक' पद भी प्रमाण के लक्षण में अनावश्यक समझा है। उनका कहना है कि स्वावभासकत्व ज्ञानसामान्य का धर्म है। ज्ञान चाहे प्रमाण हो या अप्रमाण, वह स्वसंवेदी होगा ही । तात्पर्य यह है कि जैन परम्परा में ऐसा स्वसंवेदी ज्ञान प्रमाण होगा जो पर पदार्थ निर्णय करनेवाला हो । प्रमाण सकलदेशी होता है वह एक गुग के द्वारा भी पूरी वस्तु को विषय करता है। नय विकादेशी होता है क्योंकि यह जिस धर्म का स्पर्श करता है उसे ही मुख्य भाव से विषय करता है। प्रमाण के भेद - सामान्यतया प्राचीन काल से जैन परम्परा में प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद निर्विवाद रूप से स्वीकृत चले आ रहे हैं। आत्ममात्र सापेक्ष ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं तथा जिस ज्ञान 1 इन्द्रिय मन प्रकाश आदि परसाधनों की अपेक्षा हो वह ज्ञान परीक्ष कहा जाता है। प्रत्यक्ष और परोक्ष की यह परिभाषा जैन परम्परा की अपनी है जैन परम्परा में प्रत्येक वस्तु अपने परिणमन में स्वयं उपादान होती है। जितने परनिमित्तक परिणमन हैं वे सब व्यवहार मूलक हैं। जितने मात्र स्वनिमित्तक परिणमन हैं वे परमार्थ हैं, निश्चयनय के विषय हैं। प्रत्यक्ष और परोक्ष के लक्षण में भी वही स्वाभिमुख दृष्टि कार्य कर रही है और उसके निर्वाह के लिए अक्ष शब्द का अर्थ (अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा) आत्मा किया गया। प्रत्यक्ष के लोकप्रसिद्ध अर्थ के निर्वाह के लिए इन्द्रियजन्य ज्ञान को सांयबहारिक संज्ञा दी। यद्यपि शास्त्रीय परमार्थं व्याख्या के अनुसार इन्द्रियजन्य ज्ञान परसापेक्ष होने से परोक्ष है किन्तु लोकव्यवहार में इनकी प्रत्यक्षरूप से प्रसिद्धि होने के कारण इन्हें संव्यवहार प्रत्यक्ष कह 1
SR No.007279
Book TitleNyayvinischay Vivaran Part 01
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages618
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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