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प्रस्तावना उसमें अभेद एक कोने में पड़ा होगा और अभेद के अनन्तों भाई-बन्धु उसमें तादात्म्य हो रहे होंगे। अतः इन ज्ञानलवधारियों को उदारदृष्टि देनेवाले तथा वस्तु की झाँकी दिखानेवाले अनेकान्तदर्शन ने वास्तविक विचार की अन्तिम रेखा खींची है, और यह सब हुआ है मानस समतामूलक तत्वज्ञान की खोज से। जब इस प्रकार वस्तुस्थिति ही अनेकान्तमयी या अनन्त धर्मात्मिका है तब सहज ही मनुष्य यह सोचने लगता है कि दूसरा वादी जो कह रहा है उसकी सहानुभूति से समीक्षा होनी चाहिये और वस्तुस्थिति मूलक समीकरण होना चाहिये। इस स्वीयस्वल्पता और वस्तु अनन्तधर्मता के वातावरण से निरर्थक कल्पनाओं का जाल टूटेगा और अहंकार का विनाश होकर मानससमता की सृष्टि होगी। जो कि अहिंसा का संजीवन बीज है। इस तरह मानस समता के लिए अनेकान्त दर्शन ही एकमात्र स्थिर आधार हो सकता है। जब अनेकान्त दर्शन से विचारशुद्धि हो जाती है तब स्वभावतः वाणी में नम्रता और परसमन्वय की वृत्ति उत्पन्न हो जाती है। वह वस्तुस्थिति को उल्लंघन करनेवाले शब्द का प्रयोग ही नहीं कर सकता। इसीलिए जैनाचार्यों ने वस्तु की अनेकधर्मात्मकता का द्योतन करने के लिए 'स्यात्' शब्द के प्रयोग की आवश्यकता बताई है। शब्दों में यह सामर्थ्य नहीं जो कि वस्तु के पूर्णरूप को युगपत् कह सके । वह एक समय में एक ही धर्म को कह सकता है। अतः उसी समय वस्तु में विद्यमान शेष धर्मों की सत्ता का सूचन करने के लिए 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया जाता है। 'स्यात्' का 'सुनिश्चित दृष्टिकोण' या 'निर्णीत अपेक्षा' ही अर्थ हैं 'शायद, सम्भव कदाचित् आदि नहीं। 'स्यादस्ति' का वाच्यार्थ है-स्वरूपादि की अपेक्षा से वस्तु है ही' न कि 'शायद है', 'सम्भव है', 'कदाचित् है। आदि। संक्षेपतः जहाँ अनेकान्त दर्शन चित्त में समता, मध्यस्थभाव, वीतरागता, निष्पक्षता का उदय करता है वहाँ स्याद्वाद वाणी में निर्दोपता आने का पूरा अवसर देता है।
इस प्रकार अहिंसा की परिपूर्णता और स्थायित्व की प्रेरणा ने मानस शुद्धि के लिए अनेकान्तदर्शन और वचन शुद्धि के लिए स्याद्वाद जैसी निधियों को भारतीय संस्कृति के कोपागार में दिया है। बोलते समय वक्ता को सदा यह ध्यान रहना चाहिए कि वह जो बोल रहा है उतनी ही वस्तु नहीं है, किन्तु बहुत बड़ी है, उसके पूर्णरूप तक शब्द नहीं पहुंच सकते। इसी भाव को जताने के लिए वक्ता 'स्यात्' शब्द का प्रयोग करता है । 'स्यात्' शब्द विधिलिङ् में निष्पन्न होता है, जो अपने वक्तव्य को निश्चित रूप में उपस्थित करता है न कि संशय रूप में। जैन तीर्थकरों ने इस तरह सर्वाङ्गीण अहिंसा की साधना का
वैयक्तिक और सामाजिक दोनों प्रकार का प्रत्यक्षानुभूत मार्ग बताया है। उनने पदार्थों के स्वरूप का यथार्थ निरूपण तो किया ही, साथ ही पदार्थों के देखने का, उनके ज्ञान करने का और उनके स्वरूप को वचन से कहने का नया वस्तुस्पर्शी मार्ग बताया। इस अहिंसक दृष्टि से यदि भारतीय दर्शनकारों ने वस्तु का निरीक्षण किया होता तो भारतीय जल्पकथा का इतिहास रक्तरंजित न हुआ होता और धर्म तथा दर्शन के नाम पर मानवता का निर्दलन नहीं होता। पर अहंकार और शासन भावना मानव को दानव बना देती है। उस पर भी धर्म और मत का 'अहम्' तो अति दुर्निवार होता है । परन्तु युग युग में ऐसे ही दानवों को मानव बनाने के लिए अहिंसक सन्त इसी समन्वय दृष्टि, इसी समता भाव और इसी सर्वाङ्गीण अहिंसा का सन्देश देते आए हैं। यह जैन दर्शन की ही विशेषता है जो वह अहिंसा की तह तक पहुँचने के लिए केवल धार्मिक उपदेश तक ही सीमित नहीं रहा अपि तु वास्तविक स्थिति के आधार से दार्शनिक युक्तियों को सुलझाने की मौलिक दृष्टि भी खोज सका । न केवल दृष्टि ही किन्तु मन वचन और काय इन तीनों द्वारों से होनेवाली हिंसा को रोकने का प्रशस्ततम मार्ग भी उपस्थित कर सका।
आज डॉ. भगवान्दास जैसे मनीषी समन्वय और सब धर्मों की मौलिक एकता की आवाज बुलन्द कर रहे हैं। वे वर्षों से कह रहे हैं कि समन्वय दृष्टि प्राप्त हुए बिना स्वराज्य स्थायी नहीं हो सकता, मानव मानव नहीं रह सकता। उन्होंने अपने 'समन्वय' और 'दर्शन का प्रयोजन' आदि ग्रन्थों में इसी समन्वय तत्त्व का भूरि भूरि प्रतिपादन किया है। जैन ऋषियों ने इस समन्वय (स्याद्वाद) सिद्धान्त पर ही संख्याबद्ध ग्रन्थ लिखे हैं। इनका विश्वास है कि जब तक दृष्टि में समीचीनता नहीं आयगी तब तक