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न्यायविनिश्चयविवरण क्या सर राधाकृष्णन् बताने की कृपा करेंगे कि स्याद्वाद ने निश्चित अनिश्चित अर्धसत्यों को पूर्ण सत्य मानने की प्रेरणा कैसे की है ? हाँ, वह वेदान्त की तरह चेतन और अचेतन के काल्पनिक अभेद की दिमागी दौड़ में अवश्य शामिल नहीं हुआ। और न वह किसी ऐसे सिद्धान्त का समन्वय करने की सलाह देता है जिसमें वस्तुस्थिति की उपेक्षा की गई हो। सर राधाकृष्णन् को पूर्ण प्रत्य रूप से वह काल्पनिक अभेद या ब्रह्म इष्ट है जिसमें चेतन अचेतन मूर्त अमूर्त सभी काल्पचिक रीति से समा जाते हैं। वे स्याद्वाद की समन्वयदृष्टि को अर्धसत्यों के पास लाकर पटकना समझते हैं, पर जब प्रत्येक वस्तु स्वरूपतः अनन्तधर्मात्मक है तब उस वास्तविक नतीजे पर पहुँचने को अर्धसत्य कैसे कह सकते हैं ? हाँ, स्याद्बाद उस प्रमाणविरुद्ध काल्पनिक अभेद की ओर वस्तुस्थितिमूलक दृष्टि से नहीं जा सकता। वैसे, संग्रहनय की एक चरम अभेद की कल्पना जैनदर्शनकारों ने भी की है और उस परम संग्रहनय की अभेद दृष्टि से बताया है कि-'सर्वमेकं सदविशेषत्' अर्थात्-जगत् एक है, सद्प से चेतन और अचेतन में कोई भेद नहीं है । पर यह एक कल्पना है, क्योंकि ऐसा एक सत् नहीं है जो प्रत्येक मौलिक द्रव्य में अनुगत रहता हो । अतः यदि सर राधाकृष्णन् को चरम अभेद की कल्पना ही देखनी हो तो वे परमसंग्रहनय के दृष्टिकोण में देख सकते हैं, पर वह केवल कल्पना ही होगी, वस्तुस्थिति नहीं। पूर्णसत्य तो वस्तु का अनेकान्तात्मक रूप से दर्शन ही है न कि काल्पनिक अभेद का दर्शन ।
इसी तरह प्रो. बलदेव उपाध्याय इस स्याद्वाद से प्रभावित होकर भी सर राधाकृष्णन् का अनुसरण कर स्याद्वाद को मूलभूततत्त्व (एक बह्म ?) के स्वरूप के समझने में नितान्त असमर्थ बताने का साहस करते हैं । इनने तो यहाँ तक लिख दिया है कि इसी कारण यह व्यवहार तथा परमार्थ के बीचोंबीच तत्वविचार को कतिपय क्षण के लिए विस्रम्भ तथा विराम देने वाले विश्रामगृह से बढ़कर अधिक महत्त्व नहीं रखता।" (भारतीय दर्शन पृ० १७३ )। आप चाहते हैं कि प्रत्येक दर्शन को उस काल्पनिक अभेद तक पहुँचना चाहिए। पर स्याद्वाद जव वस्तुविचार कर रहा है तब वह परमार्थ सत् वस्तु की सीमा को कैसे लाँघ सकता है ? ब्रह्मैकवाद न केवल युक्तिविरुद्ध ही है पर आज के विज्ञान से उसके एकीकरण का कोई वास्तविक मूल्य सिद्ध नहीं होता । विज्ञान ने एटम तक का विश्लेषण किया है और प्रत्येक की अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार की है। अतः यदि स्याद्वाद वस्तु की अनेकान्तात्मक सीमा पर पहुँचाकर बुद्धि को विराम देता है तो यह उसका भूपग ही है। दिमागी अभेद से वास्तविक स्थिति की उपेक्षा करना मनोरञ्जन से अधिक महत्त्व की बात नहीं हो सकती।
इसी तरह श्रीयुत हनुमन्तराव एम. ए. ने अपने "Jain Instrumental theory of Knowledge" नामक लेख में लिखा है कि-"स्थाद्वाद सरल समझौते का मार्ग उपस्थित करता है. वह पूर्ण सत्य तक नहीं ले जाता।" आदि। ये सब एक ही प्रकार के विचार हैं जो स्याद्वाद के स्वरूप को न समझने के या वस्तुस्थिति की उपेक्षा करने के परिणाम हैं। मैं पहिले लिख चुका हूँ कि-महावीर ने देखा कि वस्तु तो अपने स्थान पर अपने विराट रूप में प्रतिष्ठित है, उसमें अनन्त धर्म, जो हमें परस्पर विरोधी मालूम होते हैं, अविरुद्ध भाव से विद्यमान हैं, पर हमारी दृष्टि में विरोध होने से हम उसकी यथार्थ स्थिति को नहीं समझ पा रहे हैं। जैन दर्शन वास्तव-बहुत्ववादी है। वह दो पृथक् सत्ताक वस्तुओं को व्यवहार के लिए कल्पना से अभिन्न कह भी दे, पर वस्तु की निजी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करना चाहता। जैन दर्शन एक व्यक्ति का अपने गुण-पर्यायों से वास्तविक अभेद तो मानता है, पर दो व्यक्तियों में अवास्तविक अभेद को नहीं मानता। इस दर्शन की यही विशेषता है, जो यह परमार्थ सत् वस्तु की परिधि को न लाँघकर उसकी सीमा में ही विचार करता है और मनुष्यों को कल्पना की उड़ान से विरत कर वस्तु की ओर देखने को बाध्य करता है। जिस चरम अभेद तक न पहुँचने के कारण अनेकान्त दर्शन को सर राधाकृष्णन जैसे विचारक अर्धसत्यों का समुदाय कहते हैं उस चरम अभेद को भी अनेकान्त दर्शन एक व्यक्ति का एक धर्म मानता है । वह उन अभेदकल्पकों को कहता है कि वस्तु इससे भी बड़ी है अभेद तो उसका एक धर्म है। दृष्टि को और उदार तथा विशाल करके वस्तु के पूर्ण रूप को देखो,