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न्यायविनिश्चयविवरण
मतभेद और संघर्ष बना ही रहेगा। नए दृष्टिकोण से वस्तु स्थिति तक पहुँचना ही विसंवाद से हटाकर जीवन को संवादी बना सकता है। जैन दर्शन की भारतीय संस्कृति को यही देन है। आज हमें जो स्वातन्त्र्य के दर्शन हुए हैं वह इसी अहिंसा का पुण्यफल है। कोई यदि विश्व में भारत का मस्तक ऊँचा रख सकता है तो यह निरुपाधि वर्ण, जाति, रङ्ग, देश आदि की क्षुद्र उपाधियों से रहित अहिंसा भावना ही है।
इस प्रकार सामान्यतः दर्शन शब्द का को देन का सामान्य वर्णन करने के बाद इस किया जाता है
अर्थ और उनकी सीमा तथा जैनदर्शन की भारतीय दर्शन भाग में आए हुए ग्रन्थगत प्रमेय का वर्णन संक्षेप में
विषयपरिचय
ग्रन्थ का बाह्यस्वरूप
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नाम - आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने जैन न्याय का अवतार करने वाला न्यायावतार प्रन्थ लिखा है। न्यायावतार में प्रत्यक्ष अनुमान और भूत इन तीन प्रमाणों का विवेचन किया गया है। अकलदेव ने प्रकृत ग्रन्थ न्यायविनिधय में भी प्रत्यक्ष अनुमान और प्रवचन ये तीन ही प्रस्ताव रखे हैं। धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक में प्रत्यक्ष, स्वार्थानुमान और परावनुमान इन तीन का विवेचन है। परार्थानुमान और शब्द प्रमाण की प्रक्रिया लगभग एकसी है। धर्मकीति का एक प्रमाणविनिश्चय ग्रन्थ भी प्रसिद्ध है । यह ग्रन्थ गद्यपद्यमय रहा है। घादिदेवसूरिने स्याद्वाद रत्नाकर ( पृ० २३) में 'धर्मकीर्तिरपि न्यायविनिश्वयस्प....... वह उल्लेख करके लिखा है कि न्यायविनिश्रव के तीन परिच्छेदों में क्रमशः प्रत्यक्ष, स्वार्थानुमान और परार्थानुमान का वर्णन है। यदि धर्मकीर्ति का प्रमाणविनिश्रय के अतिरिक्त न्यायविनिश्चय नाम का भी कोई प्रन्थ रहा है तो देव ने नाम की पसन्दगी में इसका उपयोग कर लिया होगा। अभी तक के अनुसन्धान से धर्मकीर्ति के न्यायविनिश्चय ग्रन्थ का तो पता नहीं चला है। हो सकता है कि धादिदेवर ने प्रमाण विनिश्चय का ही न्यायविनिश्रय के नाम से उल्लेख कर दिया हो क्योंकि उसके प्रत्यक्ष स्वार्थानुमान और परार्थानुमान परिच्छेद प्रमाण के ही भेदों के विवेचक है। अतः प्रमाणवार्तिक की तरह प्रभाणविनय नाम की ही अधिक सम्भावना है। देव ने न्याय को कलिदोष से मलिन हुआ देखकर उसके विनिश्रयार्थ न्यायावतार और प्रमाणचिनिश्चय के आद्यन्त पदों से ग्रन्थ का न्यायविनिश्व नामकरण किया होगा ।
न्यायविनिश्चय की अककर्तृकता-देव अपने ग्रन्थों में कहीं न कहीं 'अकल' नाम का प्रयोग अवश्य करते हैं। यह प्रयोग कहीं जिनेन्द्र के विशेषण के रूप में कहीं प्रन्थ के विशेषण के रूप में और कहीं लक्षणघटक विशेषण के रूप में दृष्टिगोचर होता है। न्यायविनिश्रय ग्रन्थ ( कारिका नं० (२८६) में बिखर कर निचयन्यायो विनिश्चीयते" इस कारिकांश के द्वारा अकलङ्क और न्यायधिनिश्चय दोनों की हृदयहारिणी रीति से स्पष्ट सूचना दे दी है। वादिराजसूरि के पुष्पिका वाक्य अनन्तवीर्य की सिद्धिविनिश्चय टीका ( पृ० २०८ B ) का उल्लेख, विद्यानन्दि का आप्तपरीक्षा ( पृ० ४९ ) गत 'मदेव कह कर उद्धृत की गई न्यायधिनिधय की 'इन्द्रजालादिषु' आदि कारिका, न्यायदीपिकाकार धर्मभूषणयति द्वारा 'तदुक्त' भगवद्भिरकलङ्कदेवैः न्यायविनिश्चये' लिखकर 'प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः' इस तीसरी कारिका का उद्घृत किया जाना इस ग्रन्थ की अकलङ्ककर्तृकता के प्रबल पोषक प्रमाण हैं । ग्रन्थगतप्रमेय - न्यायविनिश्रय में तीन प्रस्ताव हैं—१ प्रत्यक्ष २ अनुमान २ प्रयचन । इन प्रस्तावों में स्थूल रूप से निम्नलिखित विषयों पर प्रकाश डाला गया है
प्रथम प्रत्यक्ष प्रस्ताव में प्रत्यक्ष का लक्षण, इन्द्रिय प्रत्यक्ष का लक्षण, प्रमाणसम्प्लव सूचन चक्षुरादि बुद्धियों का व्यवसायात्मकत्व, त्रिकल्प के अभिलापवस्त्र आदि लक्षणों का खण्डन, ज्ञान को परोक्ष