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प्रस्तावना
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मेरा उन दार्शनिकों से निवेदन है कि भारतीय परम्परा में जो सत्य की धारा है उसे 'दर्शनप्रस्थ' लिखते समय भी कायम रखें और समीक्षा का स्तम्भ तो बहुत सावधानी और उत्तरदायित्व के साथ लिखने की कृपा करें जिससे दर्शन केवल विवाद और भ्रान्त परम्पराओं का अजायबघर न बने। वह जीवन में संवाद लावे और दर्शनप्रणेताओं को समुचित न्याय दे सके ।
इस तरह जैनदर्शन ने दर्शन शब्द की काल्पनिक भूमिका से निकल कर वस्तु सीमा पर खड़े होकर जगत् में वस्तुस्थिति के आधार से संवाद समीकरण और यथार्थतत्वज्ञान की दृष्टि दी। जिसकी उपासना से विश्व अपने वास्तविक रूप को समझ कर निरर्थक विवाद से बचकर सच्चा संवादी बन सकता है।
अनेकान्तदर्शन का सांस्कृतिक आधार
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भारतीय विचार परम्परा में स्पष्टतः दो धाराएँ हैं एक धारा वेद को प्रमाण मानने वाले वैदिक दर्शनों की है और दूसरी वेद को प्रमाण न मानकर पुरुषानुभव या पुरुषसाक्षात्कार को प्रमाण माननेवाले श्रमण सन्तों की । यद्यपि चार्वाक दर्शन भी वेद को प्रमाण नहीं मानता किन्तु उसने आत्मा का अस्तित्व जन्म से मरण पर्यन्त ही स्वीकार किया है। उसने परलोक, पुण्य, पाप और मोक्ष जैसे आत्मप्रतिष्ठित तत्वों को तथा आत्मसंशोधक चारित्र आदि की उपयोगिता को स्वीकृत नहीं किया है। अतः अवैदिक होकर भी वह श्रमणधारा में सम्मिलित नहीं किया जा सकता । श्रमणधारा वैदिक परम्परा को न मानकर भी आत्मा, जमिन ज्ञान सन्तान, पुण्य-पाप, परलोक, निर्वाण आदि में विश्वास रखती है, अतः पाणिनिकी परिभाषा के अनुसार आस्तिक है। वेद को या ईश्वर को जगत्को न मानने के कारण भ्रमणधारा को नास्तिक कहना उचित नहीं है । क्योंकि अपनी अमुक परम्परा को न मानने के कारण यदि श्रमण नास्तिक कहे जाते हैं तो भ्रमण परम्परा को न मानने के कारण वैदिक भी मिध्यादृष्टि आदि विशेषणों से पुकारे गये हैं। श्रमणधारा का सारा तत्वज्ञान या दर्शनविस्तार जीवन-शोधन या चारित्र्य वृद्धि के लिए हुआ था। वैदिक परम्परा में तत्वज्ञान को मुक्ति का साधन माना है, जब कि भ्रमणधारा में चारित्र को वैदिकपरम्परा वैराग्य आदि से ज्ञान को पुष्ट करती है, विचारशुद्धि करके मोक्ष मान लेती है जब कि भ्रमण परम्परा कहती है कि उस ज्ञान या विचार का कोई मूल्य नहीं जो जीवन में न उतरे। जिसकी सुवास से जीवनशोधन न हो वह ज्ञान या विचार मस्तिष्क के व्यायाम से अधिक कुछ भी महत्त्व नहीं रखते । जैन परम्परा में तत्त्वार्थसूत्र का आद्यसूत्र है – “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग : " ( तत्त्वार्थ सूत्र १1१ ) अर्थात् सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्पकचारित्र की आत्मपरिणति मोक्ष का मार्ग है। यहाँ मोक्ष का साक्षात् कारण चारित्र है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान तो उस चारित्र के परिपोषक है। बौद्ध परम्परा का अष्टांग मार्ग भी चारित्र का ही विस्तार है । तात्पर्य यह कि श्रमणधारा में ज्ञान की अपेक्षा चारित्र का ही अन्तिम महत्व रहा है और प्रत्येक विचार और ज्ञान का उपयोग चारित्र अर्थात् आत्मशोधन या जीवन में सामजस्य स्थापित करने के लिए किया गया है। भ्रमण सन्तों ने तप और साधना के द्वारा वीतरागता प्राप्त की और उसी परम वीतरागता, समता या अहिंसा की उत्कृष्ट उपोति को विश्व में प्रचारित करने के लिए विश्वतत्त्वों का साक्षात्कार किया। इनका साध्य विचार नहीं आचार था, ज्ञान नहीं चारित्र्य था, वाग्विलास या शास्त्रार्थ नहीं, जीवन शुद्धि और संवाद था। अहिंसा का अन्तिम अर्थ है— जीवमात्र में (चाहे वह स्थावर हो या जंगम, पशु हो या मनुष्य, माह्मण हो क्षत्रिय हो या शुद्र, गोरा हो या काला, एतद्देशीय हो या विदेशी ) देश, काल, शरीराकार के आवरणों से परे होकर समत्य दर्शन प्रत्येक जीव स्वरूप से चैतन्य शक्ति का अखण्ड शाश्वत आधार है वह कर्म या वासनाओं के कारण वृक्ष, कीड़ा-मकोड़ा, पशु और मनुष्य आदि शरीरों को धारण करता है, पर अखण्ड चैतन्य का एक भी अंश उसका नष्ट नहीं होता । वह वासना या रागद्वेषादि के द्वारा विकृत अवश्य हो जाता है। मनुष्य अपने देश काल आदि निमित्तों से गोरे या काले किसी भी शरीर को धारण किए हो, अपनी वृत्ति या कर्म के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र किसी भी श्रेणी में उसकी गणना व्यवहारतः की जाती हो, किसी भी देश में उत्पन्न हुआ
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