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________________ २६ न्यायविनिश्चयविवरण भी होती है। अतः वस्तु स्याद् वक्तव्य है। जब मूल भङ्ग तीन हैं तब इनके द्विसंयोगी भंग भी तीन होंगे तथा त्रिसंयोगी भंग एक होगा। जिस तरह चतुष्कोटि में सत् और असत् को मिलाकर प्रश्न होता है कि 'क्या सत् होकर भी वस्तु असत् है?' उसी तरह ये भी प्रश्न हो सकते हैं कि-१ क्या सत् होकर भी वस्तु अवक्तव्य है? २ क्या असत् होकर भी वस्तु अवक्तव्य है ? ३ क्या सत्-असत् होकर भी वस्तु अवक्तव्य है? इन तीनों प्रभों का समाधान संयोगज चार भंगों में है। अर्थात् (७) अस्ति नास्ति उभय रूप वस्तु है-स्वचतुष्टय और परचतुष्टय पर क्रमशः दृष्टि रखने पर और दोनों की सामूहिक विवक्षा रहने पर। (५) अस्ति अवक्तव्य वस्तु है-प्रथम समय में स्वचतुष्टय और द्वितीय समय में युगपत् स्वपर चतुष्टय पर क्रमशः दृष्टि रखने पर और दोनों की सामूहिक विवक्षा रहने पर। (६) नास्ति अवक्तव्य वस्तु है-प्रथम समय में पर चतुष्टय और द्वितीय समय में युगपत् स्वपर चतुष्टय की क्रमशः दृष्टि रखने पर और दोनों की सामूहिक विवक्षा रहने पर। (७) अस्ति नास्ति अवक्तव्य वस्तु है-प्रथम समय में स्वचतुष्टय, द्वितीय समय में पर चतुष्टय तथा तृतीय समय में युगपत् स्व-पर चतुष्टय पर क्रमशः दृष्टि रखने पर और तीनों की सामूहिक विवक्षा रहने पर । जब अस्ति और नास्ति की तरह अवक्तव्य भी वस्तु का धर्म है तब जैसे अस्ति और नास्ति को मिलाकर चौथा भंग बन जाता है वैसे ही अवक्तव्य के साथ भी अस्ति, नास्ति और अस्ति नास्ति मिलकर पाँचवे छठवें और सातवें भंग की सृष्टिहो जाती है। इस तरह गणित के सिद्धान्त के अनुसार तीन मूल वस्तुओं के अधिक से अधिक अपुनरुक्त सात ही भंग हो सकते हैं। तात्पर्य यह कि वस्तु के प्रत्येक धर्म को लेकर सात प्रकार की जिज्ञासा हो सकती है, सात प्रकार के प्रश्न हो सकते हैं अतः उनके उत्तर भी सात प्रकार के ही होते हैं। दर्शनदिग्दर्शन में श्री राहुलजी ने पाँचवें छठवें और सातवें भंग को जिस भ्रष्ट तरीके से तोड़ामरोड़ा है वह उनकी अपनी निरी कल्पना और अतिसाहस है। जब वे दर्शनों को व्यापक नई और वैज्ञानिक रष्टि से देखना चाहते हैं तो किसी भी दर्शन की समीक्षा उसके स्वरूप को ठीक समझ कर ही करनी चाहिए। वे अवक्तव्य नामक धर्म को जो कि सत् के साथ स्वतन्त्रभाव से द्विसंयोगी हुआ है, तोड़कर अ-वक्तव्य करके संजय के 'नहीं' के साथ मेल बैठा देते हैं और संजय के घोर अनिश्चयवाद को ही अनेकान्तवाद कह देते हैं! किमाश्चर्यमतः परम् ? श्री सम्पूर्णानन्दजी 'जैनधर्म' पुस्तक की प्रस्तावना (पृ० ३) में अनेकान्तवाद की ग्राह्यता स्वीकार करके भी सप्तभङ्गी न्याय को बालकी खाल निकालने के समान आवश्यकता से अधिक बारीकी में जाना समझते हैं। पर सप्तभङ्गी को आज से अढाई हजार वर्ष पहिले के वातावरण में देखने पर वे स्वयं उसे समय की माँग कहे बिना नहीं रह सकते । अढ़ाई हजार वर्ष पहिले आबाल गोपाल प्रत्येक प्रश्न को सहज तरीके से 'सत् असत् उभय और अनुभय' इन चार कोटियों में गूंथ कर ही उपस्थित करते थे और उस समय के भारतीय आचार्य उत्तर भी चतुष्कोटि का ही, हाँ या ना में देते थे तब जैन तीर्थंकर महावीर ने मूल तीन भङ्गों के गणित के. नियमानुसार अधिक से अधिक सात प्रश्न बनाकर उनका समाधान सप्तभङ्गी द्वारा किया जो निश्चितरूप से वस्तु की सीमा के भीतर ही रही है। अनेकान्तवाद ने जगत् के वास्तविक अनेक सत् का अपलाप नहीं किया और न वह केवल कल्पना के क्षेत्र में विचरा है। १ जैन कथाग्रन्थों में महावीर के बालजीवन की एक घटना का वर्णन आता है कि-'संजय और विजय नाम के दो साधुओं का संशय महावीर को देखते ही नष्ट हो गया था, इसलिए इनका नाम सन्मति रखा गया था।' सम्भव है यह संजय-विजय संजयवेलट्ठि पुत्त ही हों और इसीके संशय या अनिश्चय का नाश महावीर के सप्तभंगी न्याय से हुआ हो और वेलट्ठिपुत्त विशेषण ही भ्रष्ट होकर विजय नाम का दूसरा साधु बन गया हो।
SR No.007279
Book TitleNyayvinischay Vivaran Part 01
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages618
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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