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________________ प्रस्तावना २५ संजय और बुद्ध जिन प्रश्नों का समाधान नहीं करते, उन्हें अनिधय या अव्याकृत कह कर अपना पिण्ड ख़ुदा लेते हैं, महाबीर उन्हीं का वास्तविक बुक्ति संगत समाधान करते हैं। इस पर भी राहुलजी, और धर्मानन्द कोसम्बी आदि यह कहने का साहस करते हैं कि 'संजय के अनुयायियों के लुप्त हो जाने पर संजय के वाद को ही जैनियों ने अपना लिया' । यह तो ऐसा ही है जैसे कोई कहे कि भारत में रही परतन्त्रता को ही परतताविधायक अंग्रेजों के चले जाने पर भारतीयों ने उसे अपरतन्त्रता (स्वतन्त्रता) रूप से अपना लिया है, क्योंकि अपरतन्त्रता में भी 'प र तन्त्र ता' ये पाँच अक्षर तो मौजूद हैं ही। या हिंसा को ही बुद्ध और महावीर ने उसके अनुयायियों के लुप्त होने पर अहिंसारूप से अपना लिया है क्योंकि अहिंसा में भी 'हिंसा' ये दो अक्षर हैं ही। यह देखकर तो और भी आश्चर्य होता है कि आप ( पृ० ४८४) अनिश्चिततावादियों की सूची में संजय के साथ निग्ांठ नाथपुत्र ( महावीर ) का नाम भी लिख जाते हैं, तथा ( पृ० ४९१ ) संजय को अनेकान्तवादी क्या इसे धर्मकीर्ति के शब्दों में 'बिग व्यापकं तमः' नहीं कहा जा सकता ? 'स्यात्' शब्द के प्रयोग से साधारणतया लोगों को संशय अनिश्रय या संभावना का भ्रम होता हैं। पर यह तो भाषा की पुरानी शैली है उस प्रसङ्ग की, जहाँ एक वाद का स्थापन नहीं होता । एकाधिक भेद या विकल्प की सूचना जहाँ करनी होती है वहाँ 'स्यात्' पद का प्रयोग भाषा की शैली का एक रूप रहा है जैसा कि मज्झिमनिकाय के महाराहुलबाद सुत्त के निम्नलिखित अवतरण से ज्ञात होता है— 'कतमा च राहुल तेजीधातु ? तेजोधातु सिया अज्झतिका सिया बाहिरा।" अर्थात् जो धातु स्वात् आध्यात्मिक है, स्वात् बाह्य है यहाँ सिया (स्यात्) शब्द का प्रयोग तेजो धातु के निश्चित भेदों की सूचना देना है न कि उन भेदों का संशय अनिश्चय या सम्भावना बताता है। आध्यामिक भेद के साथ प्रयुक्त होनेवाला स्यात् शब्द इस बात का द्योतन करता है कि तेजो धातु मात्र आध्यात्मिक ही नहीं है किन्तु उससे व्यतिरिक्त बाह्य भी है। इसी तरह 'स्यादस्ति' में अस्ति के साथ लगा हुआ 'स्यात्' शब्द सूचित करता है कि अस्ति से भिन्न धर्म भी वस्तु में है केवल अस्ति धर्म रूप ही वस्तु नहीं है। इस तरह 'स्यात्' शब्द न शायद का न अनिश्चय का और न सम्भावना का सूचक है किन्तु निर्दिष्ट धर्म के सिवाय अम्प अशेष धर्मों की सूचना देता है जिससे श्रोता वस्तु को निर्दिष्ट धर्ममात्र रूप ही न समझ बैठे। सप्तभंगी - वस्तु मूलतः अनन्तधर्मात्मक है । उसमें विभिन्न दृष्टियों से विभिन्न विवक्षाओं से अनन्त धर्म है। प्रत्येक धर्म का विरोधी धर्म भी दृष्टिभेद से वस्तु में सम्भव है। जैसे 'घटः स्यादस्ति' में घट है ही अपने दृश्य क्षेत्र काल भाव की मर्यादा से जिस प्रकार घट में स्वचतुष्टय की अपेक्षा अस्तित्व धर्म है उसी तरह घटव्यतिरिक्त अन्य पदार्थों का नास्तित्व भी घट में है । यदि घटभिन्न पदार्थों का नास्तित्व घर में न पाया जाय तो घट और अन्य पदार्थ मिलकर एक हो जायेंगे। अंतः घट स्यादस्ति और स्यान्नास्ति रूप है । इसी तरह वस्तु में द्रव्यदृष्टि से नित्यत्व पर्यायदृष्टि से अनित्यत्व आदि अनेकों विरोधी धर्मयुगल रहते हैं। एक वस्तु में अमन्त सप्तभङ्ग बनते हैं। जब हम घट के अस्तित्व का विचार करते हैं तो अस्तित्वविषयक सात भङ्ग हो सकते हैं जैसे संजय के प्रश्नोत्तर या बुद्धके अव्याकृत प्रश्नोत्तर में हम चार कोटि तो निश्चित रूप से देखते हैं-सत् असत् उभय और अनुभय। उसी तरह गणित के हिसाब से तीन मूल भंगों को मिलाने पर अधिक से अधिक सात अपुनरुक्क भंग हो सकते हैं जैसे घड़े के अस्तित्व का विचार प्रस्तुत है तो पहिला अस्तित्व धर्म, दूसरा तद्विरोधी नास्तित्व धर्म और तीसरा धर्म होगा अवक्तव्य जो वस्तु के पूर्ण रूप की सूचना देता है कि वस्तु पूर्ण रूप से वचन के अगोचर है। उसके विराट् रूप को शब्द नहीं छू सकते । अवक्तव्य धर्म इस अपेक्षा से है कि दोनों धर्मों को युगपत् कहनेवाला शब्द संसार में नहीं है अतः वस्तु यथार्थतः वचनातीत है, अवक्तव्य है । इस तरह मूल में तीन भङ्ग हैं 2 3 ३ स्याक्ती घट १ स्यादस्ति घटः २ स्यानास्ति घटः अवक्तव्य के साथ स्वात् पद लगाने का भी अर्थ है कि वस्तु युगपत् पूर्ण रूप में यदि अप है तो क्रमशः अपने अपूर्ण रूप में वक्तव्य भी है और वह अस्ति नास्ति आदि रूप से वचनों का विषय
SR No.007279
Book TitleNyayvinischay Vivaran Part 01
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages618
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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