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________________ न्यायविनिश्रवचिचरण तक ठहरनेवाला कोई परिणमन नहीं है। जो हमें अनेक क्षण ठरहनेवाला परिणमन दिखाई देता है वह प्रतिक्षणभावी दश परिणमन का स्थूल दृष्टि से अवलोकनमात्र है। इस तरह सतत परिवर्तनशील संयोग-वियोगों की दृष्टि से विचार कीजिये तो लोक अशाश्वत है. अनित्य है, प्रतिक्षण परिवर्तित है। باد (३) क्या लोक शाश्वत और अशाश्वत दोनों रूप है? डॉ. क्रमशः उपर्युक्त दोनों दृष्टियों से विचार कीजिए तो लोक शाश्वत भी है (व्य दृष्टि से ) अशाश्वत भी है (पर्याय दृष्टि से दोनों दृष्टिकोणों को क्रमशः प्रयुक्त करने पर और उन दोनों पर स्थूल दृष्टि से विचार करने पर जगत् उभयरूप ही प्रतिभासित होता है। ( ४ ) क्या लोकशाश्वत दोनों रूप नहीं है ? आखिर उसका पूर्ण रूप क्या है ? हों, लोक का पूर्णरूप अवक्तव्य है, नहीं कहा जा सकता। कोई शब्द ऐसा नहीं जो एक साथ शाश्वत और अशाश्वत इन दोनों स्वरूपों को तथा उसमें विद्यमान अन्य अनन्त धर्मों को युगपत् कह सके । अतः शब्द की असामर्थ्य के कारण जगत् का पूर्णरूप अवक्तव्य हैं, अनुभय है, वचनातीत है । इस निरूपण में आप देखेंगे कि वस्तु का पूर्णरूप वचनों के अगोचर है अनिर्वचनीय या अवय हैं। यह चौथा उत्तर वस्तु के पूर्ण रूप को युगपत् कहने की दृष्टि से है । पर वही जगत् शाश्वत कहा जाता है द्रव्यदृष्टि से, अशाश्वत कहा जाता है पर्यायदृष्टि से । इस तरह मूलतः चौथा, पहिला और दूसरा ये तीन ही प्रश्न मौलिक हैं। तीसरा उभवरूपता का प्रश्न तो प्रथम और द्वितीय के संयोग रूप है। अब आप विचारें कि संजय ने जब लोक के शाश्वत और अशाश्वत आदि के बारे में स्पष्ट कह दिया कि मैं जानता होऊँ तो बताऊँ और बुद्ध ने कह दिया कि इनके चक्कर में न पड़ो, इसका जानना उपयोगी नहीं तब महावीर ने उन प्रश्नों का वस्तु स्थिति के अनुसार यथार्थ उत्तर दिया और शिष्यों की जिज्ञासा का समाधान कर उनको बौद्धिक दीनता से ग्राण दिया। इन प्रश्नों का स्वरूप इस प्रकार है महावीर संजय मैं जानता होऊँ तो बताऊँ, (अनिश्चय, विशेष) प्रश्न १ क्या लोक शाश्वत है? २ क्या लोक अशाश्वत हैं ? ३ क्या लोक शाश्वत और अशाश्वत है ? ४ क्या लोक दोनों रूप नहीं है अनुभय है ? " बुद्ध इसका जानना अनुपयोगी है (अव्याकृत अकथनीय ) 37 हो, लोक से शाश्वत है, इसके किसी भी सत् का सर्वथा नाश नहीं हो सकता । हाँ लोक अपने प्रतिक्षण भावी परिवर्तनों की दृष्टि से अशाश्वत है, कोई भी पदार्थ दो क्षणस्थायी नहीं। हों, दोनों दृष्टिकोणों से क्रमशः विचार करने पर लोक को शाश्वत भी कहते हैं और अशाश्वत भी । हाँ, ऐसा कोई शब्द नहीं जो लोक के परिपूर्ण स्वरूप को एक साथ समग्र भाव से कह सके। उसमें शाश्वत अशाश्वत के सिवाय भी अमन्त रूप विद्यमान हैं अतः समग्र भाव से वस्तु अनुभव है, अवकल्प है, अनिर्वचनीय है।
SR No.007279
Book TitleNyayvinischay Vivaran Part 01
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages618
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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