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प्रस्तावना
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संयोग-वियोगों के आधार से यह विश्व जगत् ( गच्छतीति जगत् अर्थात् नाना रूपों का प्राप्त होना ) बनता रहता हे 1
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तात्पर्य यह कि – विश्व में जितने सत् हैं उनमें से न तो एक कम हो सकता है और न एक बड़ सकता है। अनन्त जड़ परमाणु अनन्त आत्माएँ, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्म द्रव्य, एक आकाश, और असंख्य कालाणु इतने सत् हैं। इनमें धर्म अधर्म आकाश और काल अपने स्वाभाविक रूप में सदा विद्यमान रहते हैं उनका विलक्षण परिणमन नहीं होता। इसका अर्थ यह नहीं है कि ये कूटस्थ नित्य हैं किन्तु इनका प्रतिक्षण जो परिणमन होता है। वह सदृश स्वाभाविक परिणमन ही होता है । आत्मा और पुल से दो इल्प एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। जिस समय आत्मा शुद्ध हो जाता है उस समय वह भी अपने प्रतिक्षणभावी स्वाभाविक परिणमन का ही स्वामी रहता है, उसमें विलक्षण परिणति नहीं होती जब तक आत्मा अशुद्ध है तब तक ही इसके परिणमन पर सजातीय जीवान्तर का और विजातीय पुल का प्रभाव आने से विलक्षणता आती है। इसकी नानारूपता प्रत्येक को स्वानुभवसिद्ध है। जड़ पुद्गल ही एक ऐसा विलक्षण द्रव्य है जो सदा सजातीय से भी प्रभावित होता है भीर विजातीय चेतन से भी इसी पुल इन्य का चमत्कार आज विज्ञान के द्वारा हम सब के सामने प्रस्तुत हैं । इसी के हीनाधिक संयोग-वियोगों के फलस्वरूप असंख्य आविष्कार हो रहे हैं। विद्युत् शब्द आदि इसी के रूपान्तर हैं, इसी की शक्तियों हैं। जीव की अशुद्ध दशा इसी के संपर्क से होती है। अनादि से जीव और पुल का ऐसा संयोग है जो पर्यायान्तर लेने पर भी जीव इसके संयोग से मुक्त नहीं हो पाता और उसमें विभाव परिणमन-राग द्वेष मोह अज्ञानरूप दशाएँ होती रहती हैं। जब यह जीव अपनी चारित्रसाधना द्वारा इतना समर्थ और स्वरूपप्रतिष्ठ हो जाता है कि उस पर बाह्य जगत् का कोई भी प्रभाव न पड़ सके तो वह मुक्त हो जाता है और अपने अनन्त चैतन्य में स्थिर हो जाता है। यह मुक्त जीव अपने प्रतिक्षण परिवर्तित स्वाभाविक चैतन्य में लीन रहता है फिर उसमें अशुद्ध दशा नहीं होती। अन्ततः पुद्रक परमाणु ही ऐसे हैं जिनमें शुद्ध या अशुद्ध किसी भी दशा में दूसरे संयोग के आधार से नाना आकृतियाँ और अनेक परिणमन संभव हैं तथा होते रहते हैं । इस जगत् व्यवस्था में किसी एक ईश्वर जैसे नियन्ता का कोई स्थान नहीं है; यह तो अपने अपने संयोग-वियोगों से परिणमनशील है । प्रत्येक पदार्थ का अपना सहज स्वभावजन्य प्रतिक्षणभावी परिणमनचक्र चालू है । यदि कोई दूसरा संयोग आ पड़ा और उस द्रव्य ने इसके प्रभाव को आत्मसात् किया तो परिणमन तत्प्रभावित हो जायगा, अन्यथा वह अपनी गतिसे बदलता चला जायगा । हाइड्रोजन का एक अणु अपनी गति से प्रतिक्षण हाइड्रोजन रूप में बदल रहा है। यदि आक्सीजन का अणु उसमें आ जुटा तो दोनों का जलरूप परिणमन हो जायगा। वे एक बिन्दु रूप से सदृश संयुक्त परिणमन कर लेंगे। यदि किसी वैज्ञानिक के विश्लेषणप्रयोग का निमित्त मिला तो वे दोनों फिर जुदा जुदा भी हो सकते हैं। यदि अग्नि का संयोग मिल गया भाफ बन जायेंगे। यदि सांप के मुख का संयोग मिला विपविन्दु हो जायेंगे। तात्पर्य यह कि यह विश्व साधारणतया पुल और अशुद्ध जीव के निमित्तनैमितिक सम्बन्ध का वास्त
वह अपनी अनन्त योग्यताओं के अनुसार
विक उद्यान है। परिणमनचक पर प्रत्येक द्रव्य चड़ा हुआ है अनन्त परिणमनों को क्रमशः धारण करता है । समस्त 'सत्' के दृष्टि से अब आप लोक के शाश्वत और अशाश्वत वाले प्रश्न को विचारिए -
समुदाय का नाम लोक या विश्व है । इस
(१) क्या लोक शाश्वत है ? हाँ, लोक शाश्वत है । द्रव्यों की संख्या की दृष्टि से, अर्थात् जितने सद इसमें हैं उनमें का एक भी सद् कम नहीं हो सकता और न उनमें किसी नये सत् की वृद्धि ही हो सकती है। न एक सत् दूसरे में चिलीन ही हो सकता है। कभी भी ऐसा समय नहीं आ सकता जो इसके अंगभूत द्रव्यों का लोप हो जाय या वे समाप्त हो जायें ।
( २ ) क्या लोक अशाश्वत है ? हाँ, लोक अशाश्वत है, अङ्गभूत द्रव्यों के प्रतिक्षण भावी परिणमनों की दृष्टि से ? अर्थात् जितने सत् हैं वे प्रतिक्षण सदृश या विसदृश परिणमन करते रहते हैं । इसमें दो क्षण