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न्यायविनिश्चयविवरण
हो, किसी भी सन्त का उपासक हो, वह इन व्यावहारिक निमितों से ऊँच वा नीच नहीं हो सकता। किसी वर्णविशेष में उत्पन्न होने के कारण ही वह धर्म का ठेकेदार नहीं बन सकता। मानवमात्र के मूलतः समान अधिकार हैं, इतना ही नहीं किन्तु पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े, वृक्ष आदि प्राणियों के भी । अमुक प्रकार की आजीविका या व्यापार के कारण कोई भी मनुष्य किसी मानवाधिकार से वंचित नहीं हो सकता। यह मानवसमत्य, भावना, प्राणिमात्र में समता और उत्कृष्ट सयमंत्री अहिंसा के विकसित रूप है। श्रम वसन्त ने यही कहा है कि - एक मनुष्य किसी भूखण्ड पर या अन्य भौतिक साधनों पर अधिकार कर लेने के कारण जगत् में महान् वनकर दूसरों के निर्दलन का जन्मसिद्ध अधिकारी नहीं हो सकता। किसी वर्णविशेष में उत्पन्न होने के कारण दूसरों का शासक या धर्मं का ठेकेदार नहीं हो सकता । भौतिक साधनों की प्रतिष्ठा या में कदाचित् हो भी पर धर्मक्षेत्र में प्राणिमात्र को एक ही भूमि पर बैठना होगा। हर एक प्राणी को धर्म की शीतल छाया में समानभाव से सन्तोष की साँस लेने का सुअवसर है। आत्मसमत्व, पीठरागस्य या अहिंसा के विकास से ही कोई महान हो सकता है न कि जगत् में विषमता फैलानेवाले हिंसक परिग्रह के संग्रह से । आदर्श त्याग है न कि संग्रह। इस प्रकार जाति, वर्ण, रङ्ग, देश, आकार, परिग्रहसंग्रह. आदि विषमता और संघर्ष के कारणों से परे होकर प्राणिमात्र को समत्व, अहिंसा और वीतरागता का पावन सन्देश इन श्रमणसन्तों ने उस समय दिया जब यज्ञ आदि क्रियाकाण्ड एक वर्ग विशेष की जीविका के साधन बने हुए थे, कुछ गाय, सोना और खिरों की दक्षिणा से स्वर्ग के टिकिट प्राप्त हो जाते थे, धर्म के नाम पर गोमेव अज्ञामेच कर गरमेव तक का खुला बाजार था जातिगत उच्चाय नीचत्व का विष समाजमें शरीर को दग्ध कर रहा था, अनेक प्रकार से सत्ता को हथियाने के षड्यन्त्र चालू थे। उस बर्बर युग : मानवसमय और प्राणिनैत्री का उदारतम सन्देश इन युगधर्मी सन्तों ने नास्तिकता का मिथ्या लांछन सहते हुए भी दिया और भ्रान्त जनता को सच्ची समाजरचना का मूलमंत्र बताया ।
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पर, यह अनुभवसिद्ध बात है अहिंसा की स्थायी प्रतिष्ठा मनःशुद्धि और बचनशुद्धि के बिना नहीं हो सकती। हम भले ही शरीर से दूसरे प्राणियों की हिंसा न करें पर यदि वचन व्यवहार और चित्तगत-विचार विषम और विसंवादी है तो काधिक अहिंसा पल ही नहीं सकती। अपने मन के विचार अर्थात् मत को पुष्ट करने के लिए ऊँच नीच शब्द बोले जायेंगे और फलतः हाथापाई का अवसर आए बिना न रहेगा। भारतीय शाखाओं का इतिहास अनेक हिंसा काण्डी के ररक्षित पक्षों से भरा हुआ है। अतः यह आवश्यक था कि अहिंसा की सर्वाङ्गीप्रतिष्ठा के लिए विश्व का यथार्थ तत्वज्ञान हो और विचार शुद्धिमूलक वचनमुद्धि की जीवन व्यवहार में प्रतिष्ठा हो यह सम्भव ही नहीं है कि एक ही वस्तु के विषय में परस्पर विरोधी मतवाद चलते रहें, अपने पक्ष के समर्थन के लिए उचित अनुचित शास्त्रार्थ होते रहें, पक्ष प्रतिपक्ष का संगठन हो, शाखायें में हारनेवाले को बैंक की जलती कहाही में जीवित तल देने जैसी हिंसक होड़ें भी हों, फिर भी परस्पर अहिंसा बनी रहे !
भगवान् महावीर एक परम अहिंसक सन्त थे। उनने देखा कि आज का सारा राजकारण धर्म और मतवादियों के हाथ में है। जब तक इन मतवादों का वस्तु स्थिति के आधार से समन्वय न होगा तब तक हिंसा की जड़ नहीं कट सकती । उनने विश्व के तत्वों का साक्षात्कार किया और बताया कि विश्व का प्रत्येक चेतन और जड़ तत्र अनन्त धर्मों का भण्डार है। उसके विराट् स्वरूप को साधारण - मानव परिपूर्ण रूप में नहीं जान सकता। उसका शुद्ध ज्ञान वस्तु के एक एक अंश को जानकर अपने में पूर्णता का दुरभिमान कर बैठा है। विवाद वस्तु में नहीं है। विवाद तो देखने वालों की दृष्टि में है। काश, ये वस्तु के विराट् अनन्त-या अनेकात्मक स्वरूप की झाँकी पा सकें। उनने इस अनेकान्तात्मक तस्य ज्ञान की और मतवादियों का ध्यान खींचा और बताया कि देखो, प्रत्येक वस्तु अनन्त गुण पर्याय और धर्मों का अखण्ड पिण्ड है । यह अपनी अनाद्यनन्त सन्तान स्थिति की दृष्टि से नित्य है । कभी भी ऐसा समय नहीं आ सकता जब विश्व के रंगमञ्च से एक कण का भी समूल विनाश हो जाय। साथ ही प्रतिक्षण उसकी पर्याएँ बदल रही हैं, उसके गुण-धर्मों में भी सहस या विसदृश परिवर्तन हो रहा है, अतः