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न्यायविनिश्चयविवरण
करने से लिए समवाय नाम का स्वतन्त्र पदार्थ मानना पड़ा। जल में गन्ध की अग्नि में रस की और वायु में रूप की अनुभूति देखकर पृथक् पृथक द्रव्य माने। पर वस्तुतः वैशेषिक का प्रत्यय के माधार से स्वतन्त्र पदार्थ मानने का सिद्धान्त ही गलत है। प्रत्यय के आधार से उसके विषयभूत धर्म तो जुदा जुदा किसी तरह माने जा सकते हैं, पर स्वतन्त्र पदार्थ मानना किसी तरह युक्तिसंगत नहीं है। इस तरह एक ओर वेदान्ती या सांख्य ने क्रमशः जगत् में और प्रकृति में अभेद की कल्पना की वहाँ वैशेषिक ने आत्यन्तिक भेद को अपने दर्शन का आधार बनाया। उपनिषत् में जहाँ वस्तु के कूटस्थनित्यत्व को स्वीकार किया गया है वहाँ अजित केशकम्बलि जैसे उच्छेदवादी भी विद्यमान थे। बुद्ध ने आत्मा के मरणोत्तर जीवन और शरीर से उसके भेदाभेद को अव्याकरणीय बताया है। बुद्ध को डर था कि यदि हम आत्मा के अस्तित्व को मानते हैं तो नित्यात्मवाद का प्रसङ्ग आता है और यदि आत्मा का नास्तित्व कहते हैं तो उच्छेदवाद की आपत्ति आती है। अतः उनने इन दोनों वादों के डर से उसे अन्याकरणीय कहा है। अन्यथा उनका सारा उपदेश भूतवाद के विरुद्ध आत्मवाद की भित्ति पर है ही।
जैन दर्शन वास्तव बहुत्ववादी है। वह अनन्त चेतनतत्व, अनन्त पुद्गलद्रव्य-परमाणुरूप, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य और असंख्य कालाणुद्रव्य इस प्रकार अनन्त वास्तविक मौलिक अखण्ड द्रव्यों को स्वीकार करता है। द्रव्य सत्-स्वरूप है। प्रत्येक सत् चाहे वह चेतन हो या चेतनेतर परिणामी-नित्य है। उसका पर्यायरूप से परिणमन प्रतिक्षण होता ही रहता है। यह परिणमन अर्थपर्याय कहलाता है। अर्थपर्याय सदृश भी होती है और विसदृश भी। शुद्ध द्रव्यों की अर्थपर्याय सदा एकसी सरश होती हैं. पर होती है अवश्य । धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य कालद्रव्य आकाशद्रव्य शुद्धजीवद्रव्य इनका परिणमन सदा सहश होता है। पुद्गल का परिणमन सदृश भी होता है विसदृश भी।
जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों में वैभाविक शक्ति है और इस शक्ति के कारण इनका विसदृश परिमन भी होता है। जब जीव शुद्ध हो जाता है तब विलक्षण परिणमन नहीं होता। इस वैभाविक शक्ति का स्वाभाविक ही परिणमन होता है। तात्पर्य यह कि प्रत्येक सत् उत्पाद व्यय धाब्यशाली होने से परिणामीनित्य है। दो स्वतन्त्र सत् में रहनेवाला एक कोई सामान्य पदार्थ नहीं है। केवल अनेक जीवों को जीवस्व नामक सादृश्य से संग्रह करके उनमें एक जीवद्रव्य व्यवहार कर दिया जाता है। इसी तरह चेतन और अचेसन दो भिन्नजातीय द्रव्यों में 'सत्' नाम का कोई स्वतन्त्र सत्ताक पदार्थ नहीं है। परन्तु सभी द्रव्यों में परिणामिनित्यत्व नाम की सदृशता के कारण 'सत्,सत्' यह व्यवहार कर लिया जाता है। अनेक द्रव्यों में रहनेवाला कोई स्वतन्त्र सत् नाम का कोई वस्तुभूत तत्त्व नहीं है। ज्ञान, रूपादि गुण, उत्क्षेपण आदि क्रियाएँ सामान्य विशेष आदि सभी द्रव्य की अवस्थाएँ हैं पृथक् सत्ताक पदार्थ नहीं। यदि बुद्ध इस वस्तुस्थिति पर गहराई से विचार करते तो इस निरूपण में न उन्हें उच्छेदवाद का भय होता और न शाश्वतवाद का । और जिस प्रकार उनने आचार के क्षेत्र में मध्यमप्रतिपदा को उपादेय बताया है उसी तरह वे इस भनन्तधर्मा वस्तुतत्त्व के निरूपण को भी परिणामिनित्यता में ढाल देते।
स्याद्वाद-जैनदर्शन ने इस तरह सामान्यरूप से यावत् सत् को परिणामीनित्य माना है। प्रत्येक सत् अनन्तधर्मात्मक है। उसका पूर्णरूप वचनों के अगोचर है। अनेकान्त अर्थ का निर्दुष्टरूप से कथन करने वाली भाषा स्याद्वाद रूप होती है। उसमें जिस धर्म का निरूपण होता है उसके साथ 'स्यात्' शब्द इसलिए लगा दिया जाता है जिससे पूरी वस्तु उसी धर्म रूप न समझ ली जाय। अविवक्षित शेषधर्मों का अस्तित्व भी उसमें है यह प्रतिपादन 'स्यात्' शब्द से होता है।
स्याद्वाद का अर्थ है-स्यात्-अमुक निश्चित अपेक्षा से । अमुक निश्चत अपेक्षा से घट अस्ति ही है भौर अमुक निश्चत अपेक्षा से घट नास्ति ही है। स्यात् का अर्थ न तो शायद है न संभवतः और न कदाचित् ही। 'स्यात्' शब्द सुनिश्चित धृष्टिकोण का प्रतीक है। इस शब्द के अर्थ को पुराने मतवादी दर्शनिकों ने ईमानदारी से समझने का प्रयास तो नहीं ही किया था किन्तु आज भी वैज्ञानिक अष्टि की दुहाई देने वाले दर्शनलेखक उसी प्रान्त परम्परा का पोषण करते आते हैं।