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प्रस्तावना
१५ अचेतन द्रव्य अनन्त धर्मों का अखंड अविभागी मौलिक तत्व है। इसी अनेकान्त अनन्तधर्मा पदार्थ को प्रत्येक दार्शनिक ने अपने अपने दृष्टिकोण से देखने का प्रयास किया है ।
कोई दार्शनिक वस्तु की सीमा को भी अपनी कल्पनादृष्टि से लांच गए हैं। यथा, वेदान्त दर्शन जगत् में एक ही सत् ब्रह्म का अस्तित्व मानता है। उसके मत से अनेक सत् प्रातिभासिक हैं। एक सत् का चेतन अचेतन मूर्त अमूर्त निष्क्रिय सक्रिय आदि विरूद्ध रूप से मायावश प्रतिभास होता रहता है । इसी प्रकार विज्ञानवाद या शून्यवाद ने बाह्य घट पटादि पदार्थों का लोप करके उनके प्रतिभास को वासनाजन्य बताया है। जहाँ तक जैन दार्शनिकों ने जगत् का अवलोकन किया है वस्तुकी स्थितिको अनेकधर्मात्मक पाया और इसीलिए अनेकान्तात्मक तत्व का उनने निरूपण किया । वस्तुके पूर्णरूपको अनिर्वचनीय वाङ्मानसागोचर या अवक्तव्य सभी दार्शनिकों ने कहा है। इसी वस्तुरूपको विभिन्न दृष्टिकोणोंसे जानने और कथन करने का प्रयास भिन्न भिन्न दार्शनिकोंने किया है। जैन दर्शनने वस्तुमात्र को परिणामीनित्य स्वीकार किया । कोई भी सत् पर्याय रूपसे उत्पन्न और विनट होकर भी इभ्य रूपसे अविच्छिन्न रहता है, अपनी असङ्कीर्ण सचा रखता है।
सांख्य दर्शन में यह परिणामिनित्यता प्रकृति तक ही सीमित है। पुरुष तत्व इनके मत में कूटस्थ नित्य है । उसका विश्व व्यवस्था में कोई हाथ नहीं है । प्रकृति परिणामिनी होकर भी एक है। एक ही प्रकृति का घटपटादि सूर्त रूप में और आकाशादि अमूर्तरूप में परिणमन होता है। यही प्रकृति बुद्धि अह द्वार जैसे चैतन भावी रूप से परिणत होती है और यही प्रकृति रूपरसगन्ध आदि जबभाव रूप में परन्तु इस प्रकार के विरुद्ध परिणमन एक ही साथ एक ही तत्व में कैसे सम्भव हैं ? यह तो हो सकता है कि संसार में जितने चेतनभिन्न पदार्थ हैं वे एक जाति के हों पर एक तो नहीं हो सकते । वेदान्ती ने जहाँ चैन भिन्न कोई दूसरा तत्व स्वीकार न करके एक सत् का चेतन और अचेतन, मूर्त-अमूर्त, निष्क्रिय-सक्रिय, आन्तर बाह्य आदि अनेकधा प्रतिभास माना और दृश्य जगत् की परमार्थ सत्ता न मानकर प्रातिभासिक सत्ता ही स्वीकार की यहाँ सांख्य चेतनतत्व को अनेक स्वतन्त्रसत्ताक मानकर भी प्रकृति को एक स्वीकार करता है और उसमें विरुद्ध परिणमनों की वास्तविक स्थिति मानना चाहता है। वेदान्ती की विश्वप्रतिभास वाली बात कदाचित् समझ में आ भी जाय पर सांख्य की विपरिणमनों की वास्तविक स्थिति स्पष्टतः बाधित है।
वेदान्त की इस असङ्गति का परिहार तो सांख्य ने अनेक चेतन और जड़प्रकृति मानकर किया कि - 'अद्वैत ब्रह्म तस्व में बद और मुक्त चैतन्य ख़ुदा जुदा कैसे हो सकते हैं? एक ही ब्रह्मतत्त्व चेतन और जब इन दो महाविरोधी परिणमनों का आधार कैसे बन सकता है?' अनेक चेतन मानने से कोई बद और कोई मुक्त रह सकता है। जड़ प्रकृति मानने से जड़ात्मक परिणमन प्रकृति के हो सकते हैं ? परन्तु एक अखण्डसत्ताक प्रकृति अमूर्त आकाश भी बन जाय और सूर्त बड़ा भी बन जाय बुद्धि अहंकार भी बने और रूपरस भी बने, सो भी परमार्थतः यह महान् विशेष सर्वधा अपरिहार्य है। एक सेर वजन के बढ़े को फोड़कर आधा आधा सेर के दो वजनदार ठोस टुकड़े किये जाते हैं जो अपनी पृथक् ठोस सत्ता रखते हैं। यह विभाजन एक सत्ताक प्रकृति में कैसे हो सकता है। संसार के यावत् जड़ों में सत्व रजस्तमस इन तीन गुणों का अन्वय देखकर एकजातीयता तो मानी जा सकती है एकसत्ता नहीं। इस तरह सांख्य की विश्वव्ययस्था में अपरिहार्य असंगति बनी रहती है ।
न्यायवैशेषिकों ने जड़ता का पृथक् पृथक् विभाजन किया। मूर्तद्रव्य उदा माने अमूर्त जुदा । पृथिवी आदि के अनन्त परमाणु स्वीकार किए। पर वे इतने भेद पर उतरे कि क्रिया गुण सम्बन्ध सामान्य भादि परिणमनों को भी स्वतंत्र पदार्थ मानने लगे, यद्यपि गुण क्रिया सामान्य आदि की पृथक् उपलब्धि नहीं होती और न वे पृथसिद्ध ही है। वैशेषिक को संप्रत्ययोपाध्याय कहा है। इसकी प्रकृति है जितने प्रत्यय हो उतने पदार्थं स्वीकार कर लेना । 'गुणः गुणः प्रत्यय' हुआ तो गुण पदार्थ मान लिया । 'कर्म' कर्म' प्रत्यय हुआ एक स्वतन्त्र कर्म पदार्थ माना गया। फिर इन पदार्थों का द्रव्य के साथ सम्बन्ध स्थापित