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न्यायविनिश्चयविवरण
प्रमाण मानने वालों ने भी उसी निर्विकल्पक को प्रमाण माना है जिसकी उत्पत्ति पदार्थ से हुई है। अतः प्रश्न ज्यों का त्यों है कि दर्शन शब्द का वास्तविक क्या अर्थ हो सकता है?
जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है कि अनन्तधर्मवाले पदार्थ को ज्ञान करने के दृष्टिकोणों को शब्द के द्वारा कहने के प्रकार अनन्त होते हैं। इनमें जो दृष्टियाँ वस्तु का स्पर्श करती हैं तथा अन्य वस्तुस्पर्शी दृष्टियों का समादर करती है वे सत्योन्मुख हैं। जिनमें यह आग्रह है कि मेरे द्वारा देखा गया ही वस्तुतत्व सच्चा और अन्य मिथ्या वे वस्तुस्वरूप से पराङ्मुख होने के कारण विसंवादिनी हो जाती हैं। इस तरह कस्तु के स्वरूप के आधार से दर्शन शब्द के अर्थ को बैठाने का प्रयास कथमपि सार्थक हो जाता है। जब वस्तु स्वयं नित्य अनित्य, एक-अनेक, भाव-अभाव, आदि विरोधी द्वन्द्वों का अविरोधी क्रीडास्थल है, उसमें उन सब को मिलकर रहने में कोई विरोध नहीं है, तब इन देखनेवालों (दृष्टिकोणों) को क्यों खुराफात सुझता है जो उन्हें एक साथ नहीं रहने देते! प्रत्येक दर्शन के ऋषि अपनी अपनी दृष्टि के अनुसार वस्तु स्वरूप को देखकर उसका चिन्तन करते हैं और उसी आधार से विश्वव्यवस्था बैठाने का प्रयास करते हैं उनकी मनन-चिन्तनधारा इतनी तीव्र होती है कि उन्हें भावनावश उस वस्तु का साक्षात्कार जैसा होने लगता है। और इस भावनात्मक साक्षात्कार को ही दर्शन संज्ञा मिल जाती है।
सम्यग्दर्शन में भी एक दर्शन शब्द है। जिसका लक्षण तत्त्वार्थसूत्र में तत्त्वार्थश्रद्धान किया गया है। यहाँ दर्शन शब्द का अर्थ स्पष्टतया श्रद्धान ही है। अर्थात् तत्वों में दृढ़ श्रद्धा या श्रद्धान का होना सम्यग्दर्शन कहलाता है। इस अर्थ से जिसकी जिसपर दृढ़ श्रद्धा अर्थात् तीव्र विश्वास है वही उसका दर्शन है। और यह अर्थ जी को लगता भी है कि अमुक अमुक दर्शनप्रणेता ऋषियों को अपने द्वारा प्रणीत तत्व पर दृढ़ विश्वास था । विश्वास की भूमिकाएँ तो जुदी जुदी होती है। अतः जब दर्शन विश्वास की भूमिका पर आकर प्रतिष्ठित हुआ तब उसमें मतभेद का होना स्वाभाविक बात है। और इसी मतभेद के कारण मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना के जीवित रूप में अनेक दर्शनों की सृष्टि हुई और सभी दर्शनों ने विश्वास की भूमि में उत्पन्न होकर भी अपने में पूर्णता और साक्षात्कार का स्वांग भरा और अनेक अपरिहार्य मतमेदों की सृष्टि की। जिनके समर्थन के लिए शास्त्रार्थ हुए, संघर्ष हुए और दर्शनशास्त्र के इतिहास के पृष्ट रक्तरंजित किए गए।
सभी दर्शन विश्वास की भूमि में पनपकर भी अपने प्रणेताओं में साक्षात्कार और पूर्ण ज्ञान की भावना को फैलाते रहे फलतः जिज्ञासु सन्देह के चौराहे पर पहुँच कर दिग्भ्रान्त होता गया। इस तरह दर्शनों ने अपने अपने विश्वास के अनुसार जिज्ञासु को सत्य साक्षात्कार या तत्त्व साक्षात्कार का पूरा भरोसा तो दिया पर तत्त्वज्ञान के स्थान में संशय ही उसके पल्ले पड़ा।
जैनदर्शन ने इस दिशा में उल्लेख योग्य मार्ग प्रदर्शन किया है। उसने श्रद्धा की भूमिका पर जन्म लेकर भी वह वस्तुस्वरूपस्पर्शी विचार प्रस्तुत किया है जिससे वह श्रद्धा की भूमिका से निकल कर तत्वसाक्षात्कार के रङ्गमंच पर आ पहुंचा है। उसने बताया कि जगत् का प्रत्येक पदार्थ मूलतः एक रूप में सत् है। प्रत्येक सत् पर्यायदृष्टि से उत्पन्न विनष्ट होकर भी द्रव्य की अनाद्यनन्त धारा में प्रवाहित रहता है अर्थात् न वह कूटस्थनित्य है न सातिशय नित्य न अनित्य ।किन्तु परिणामीनित्य है। जगत् के किसी सत् का विनाश नहीं हो सकता और न किसी असत् की उत्पत्ति । इस तरह स्वरूपता पदार्थ उत्पाद व्यय और ध्रौव्यात्मक हैं। प्रत्येक पदार्थ नित्य-अनित्य, एक-अनेक, सत्-असत् जैसे अनेक विरोधी द्वन्द्वों का अविरोधी आधार है। वह अनन्त शक्तियों का अखण्ड मौलिक है। उसका परिणमन प्रतिक्षण होता रहता है पर उसकी मूलधारा का प्रवाह न तो कहीं सूखता है और न किसी दूसरी धारा में विलीन ही होता है । जगत्में अनन्त चेतन द्रव्य अनन्त अचेतन द्रव्य एक धर्मद्रव्य एक अधर्मद्रग्य एक आकाश न्य, और असंख्यकाल द्रव्य अपनी अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखते हैं। वे कभी एक दूसरे में विलीन नहीं हो सकते और अपना मूलद्रव्यत्व नहीं छोड़ सकते। प्रत्येक प्रतिक्षण परिणामी है। उसका परिणमन सरश भी होता है विसरश भी। म्यान्तरसङक्रान्ति इनमें कदापि नहीं हो सकती। इस तरह प्रत्येक चेतन