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प्रस्तावना
व्यक्तिमेद से अनन्त हो सकते हैं। फिर अपने अपने अभिप्राय से वस्तुविवेचन करनेवाले शब्द भी अनन्त है । एक वैज्ञानिक अपने दृष्टिकोण को ही पूर्ण सत्य मानकर कवि या वैद्य के रष्टिकोण या अभिप्राय को वस्तुतत्व का अग्राहक या असत्य ठहराता है तो वह यथार्थद्रष्टा नहीं है, क्योंकि पुष्प तो अखण्ड भाव से सभी के दर्शन का विषय हो रहा है और उस पुष्प में अनन्त अभिप्रायों या रष्टिकोणों से देखे जाने की योग्यता है पर दृष्टिकोण और तत्प्रयुक्त शब्द तो जुदे जुदे हैं और वे आपस में टकरा भी सकते हैं। इसी टकराहट से दर्शनभेद उत्पन्न हुआ है। तब दर्शन शब्द का क्या अर्थ फलित होता है जिसे हरएक दर्शनवादियों ने अपने मत के साथ जोड़ा और जिसके नाम पर अपने अभिप्रायों को एक दूसरे से टकराकर उसके नाम को कलंकित किया ? एक शब्द जब लोक में प्रसिद्धि पा लेता है तो उसका लेबिल तदाभासमिथ्या वस्तुओं पर भी लोग लगाकर उसके नाम से स्वार्थ साधने का प्रयत्न करते हैं । जब जनता को ठगने के लिए खोली गई दूकानें भी राष्ट्रीय-भण्डार और जनता-भण्डार का नाम धारण कर सकती हैं और गान्धीछाप शराब भी व्यवसाइयों ने बना डाली है।तो दर्शन के नाम पर यदि पुराने जमाने में तदाभास चल पड़े हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। सभी दार्शनिकों ने यह दावा किया है कि उनके ऋषि ने दर्शन करके तत्व का प्रतिपादन किया है। ठीक है, किया होगा?
दर्शन का एक अर्थ है-वामान्यावलोकन । इन्द्रिय और पदार्थ के सम्पर्क के बाद जो एक बार ही वस्तु के पूर्ण रूप का अखण्ड या सामान्य भाव से प्रतिभास होता है उसे शास्त्रकारों ने निर्विकल्प दर्शन माना है। इस सामान्य दर्शन के अनन्तर समस्त झगड़ों का मूल विकल्प आता है जो उस सामान्य प्रतिभास को अपनी कल्पना के अनुसार चित्रित करता है।
धर्मकीर्ति आचार्य ने प्रमाणवार्तिक (३४४) में लिखा है कि
"तस्माद् दृष्टस्य भावस्य दृष्ट एवाखिलो गुणः। -
भ्रान्तेनिश्चीयते नेति साधनं सम्प्रवर्तते ॥" अर्थात् दर्शन के द्वारा दृष्ट पदार्थ के सभी गुण दृष्ट हो जाते हैं, उनका सामान्यावलोकन हो जाता है। पर भ्रान्ति के कारण उनका निश्चय नहीं हो पाता इसलिए साधनों का प्रयोग करके ततद्धर्मों का निर्णय किया जाता है।
तात्पर्य यह कि-दर्शन एक ही बार में वस्तु के अखण्ड स्वरूप का अवलोकन कर लेता है और इसी अर्थ में यदि दर्शनशास्त्र के दर्शन शब्द का प्रयोग है तो मतभेद की गुंजाइश रह सकती है क्योंकि यह सामान्यावलोकन प्रतिनियत अर्थक्रिया का साधक नहीं होता। अर्थक्रिया के लिए तो तत्तदंशों के निश्चय की आवश्यकता है। अतः असली कार्यकारी तो दर्शन के बाद होनेवाले शब्दप्रयोगवाले विकल्प हैं। जिन विकल्पों को दर्शन का पृष्ठवलं प्राप्त है वे प्रमाण हैं तथा जिन्हें दर्शन का पृष्टबल प्राप्त नहीं है अर्थात् जो दर्शन के बिना मात्र कल्पनाप्रसूत हैं वे अप्रमाण हैं। अतः यदि दर्शन शब्द को आत्मा आदि पदार्थों के सामान्यावलोकन अर्थ में लिया जाता है तो भी मतभेद की गुंजाइश कम है। मतभेद तो उस सामान्यावलोकन की व्याख्या और निरूपण करने में है। एक सुन्दर स्त्री का मृत शरीर देखकर विरागी भिक्ष को संसार की असार दशा की भावना होती है। कामी पुरुष उसे देखकर सोचता है कि कदाचित यह जीवित होती... तो कुत्ता अपना भक्ष्य समझकर प्रसन्न होता है। यद्यपि दर्शन तीनों को हाहै पर व्याख्याएँ जुदी जुदी हैं। जहाँतक वस्तु के दर्शन की बात है वह विवाद से परे है। वाद तो शब्दों से शुरू होता है। यद्यपि दर्शन वस्तु के बिना नहीं होता और वही दर्शन प्रमाण माना जा सकता है जिसे अर्थ का बक प्राप्त हो अर्थात् जो पदार्थ से उत्पन्न हुआ हो। पर यहाँ भी वही विवाद उपस्थित होता है कि कौन दर्शन पदार्थ की सत्ता का अविनाभावी है तथा कौन पदार्थ के बिना केवल काल्पनिक है? प्रत्येक यही कहता है कि हमारे दर्शन ने आत्मा को उसी प्रकार देखा है जैसा हम कहते हैं, तब यह निर्णय कैसे हो कि यह दर्शन वास्तविक अर्थसमुब्त है और यह दर्शन मात्र कपोलकल्पित ? निर्विकल्पक दर्शन को