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न्यायविनिश्चयविवरण
ज्ञान पर्याय के द्वारा अवश्यम्भावी है। ज्ञान पर्याय की उत्पत्ति का जो क्रम टिप्पणी में दिया है उसके अनुसार भी जिस किसी वस्तु के पूर्णरूप तक शामपर्याय पहुँच सकती है यह निर्विवाद है। जब ज्ञान वस्तु के अनन्तधर्मात्मक विराट् स्वरूप का यथार्थ ज्ञान कर सकता है और यह भी असम्भव नहीं है कि किसी आत्मा में ऐसी ज्ञान पर्याय का विकास हो सकता है तब वस्तु के पूर्णरूप के साक्षात्कारविषय कप्रश्न का समाधान हो ही जाता है। अर्थात् विशुद्ध ज्ञान में वस्तु के विराट् स्वरूप की झांकी आ सकती है और ऐसा विशुद्ध शान तत्त्वद्रष्टा ऋषियों का रहा होगा। परन्तु वस्तु का जो स्वरूप ज्ञान में झलकता है उस सब का शब्दों से कथन करना भसम्भव है क्योंकि शन्दों में वह शक्ति नहीं है जो अनुभव को अपने द्वारा जता सके।
सामान्यतया यह तो निश्चित है कि वस्तु का स्वरूप ज्ञान का ज्ञेय तो है। जो भिन्न भिन्न ज्ञाताओं के द्वारा जाना जा सकता है वह एक ज्ञाता के द्वारा भी निर्मल ज्ञान के द्वारा जाना जा सकता है। तात्पर्य यह कि वस्तु का अखण्ड अनन्तधर्मात्मक विराट्स्वरूप अखण्ड रूप से ज्ञान का विषय तो बन जाता है और तत्वज्ञ ऋषियों ने अपने मानसज्ञान और योगिज्ञान से उसे जाना भी होगा। परन्तु शब्दों की सामर्थ्य इतनी अत्यल्प है कि जाने हुए वस्तु के धर्मों में अनन्त बहुभाग तो अनभिधेय है अर्थात् शब्द से कहे ही नहीं जा सकते। जो कहे जा सकते हैं उनका अनन्तवाँ भाग ही प्रज्ञापनीय अर्थात् दूसरों के लिए समझाने लायक होता है। जितना प्रज्ञापनीय है उसका अनन्तवाँ भाग शब्द-श्रतनिबद्ध होता है। अतः कदाचित् दर्शनप्रणेता ऋषियों ने वस्तुतत्त्व को अपने निर्मल ज्ञान से अखण्डरूप जाना भी हो तो भी एक ही वस्तु के जानने के भी दृष्टिकोण जुदे जुदे हो सकते हैं। एक ही पुष्प को वैज्ञानिक, साहित्यिक, आयुर्वेदिक तथा जनसाधारण आखों से समग्र भावसे देखते हैं पर वैज्ञानिक उसके सौन्दर्य पर मुग्ध न होकर उसके रासायनिक संयोग पर ही विचार करता है। कधि को उसके रासायनिक मिश्रण की कोई चिन्ता नहीं, कल्पना भी नहीं, वह तो केवल उसके सौन्दर्य पर मुग्ध है और वह किसी कमनीय कामिनी के उपमालंकार में गूंथने की कोमल कल्पना से आकलित हो उठता है। जब कि वैद्यजी उसके गुणदोषों के विवेचन में अपने मन को केन्द्रित कर देते हैं। पर सामान्य जन उसकी रीमी रीमी मोहक सुवास से वासित होकर ही अपने पुष्पज्ञान की परिसमाप्ति कर देता है। तात्पर्य यह कि वस्तु के अनन्त धर्मात्मक विराटस्वरूप का अखण्ड भाव से ज्ञान के द्वारा प्रतिभास होने पर भी उसके विवेचक अभिप्राय
साथ ही इस चैतन्यशक्तिका कलईवाले कांचकी तरह दर्पणवत् परिणमन हो गया है। इस दर्पणवत् परिणमन. वाले समयमें जितने समय तक वह चैतन्य दर्पण किसी ज्ञेयके प्रतिबिम्बको लेता है अर्थात् उसे जानता है तब तक उसकी वह साकार दशा ज्ञान कहलाती है और जितने समय उसकी निराकार दशा रहती है वह दर्शन कही जाती है। इस परिणामी चैतन्यका सांख्यके चैतन्यसे भेद स्पष्ट है। सांख्यका चैतन्य सदा अविकारी परिणमनशून्य और कूटस्थ नित्य है जब कि जैनका चैतन्य परिणमन करनेवाला परिणामी नित्य है। सांस्यके यहाँ बुद्धि या ज्ञान प्रकृतिका धर्म है जब कि जैनसम्मत ज्ञान चैतन्यकी ही पर्याय हैं। सांख्यका चैतन्य संसार दशामें भी ज्ञेयाकार परिच्छेद नहीं करता जब कि जैनका चैतन्य उपाधि दशामें ज्ञेयाकार परिणत होता है उन्हें जानता है। स्थूल भेद तो यह है कि ज्ञान जैनके यहाँ चैतन्यकी पर्याय है जब कि सांख्यके यहाँ प्रकृतिकी । इस तरह ज्ञान चैतन्यकी औपाधिक पर्याय है और यह संसार दशामें बराबर चालू रहती है जब दर्शन अवस्था होती है तब ज्ञान अवस्था नहीं होती और जब ज्ञान पर्याय होती होती है तब दर्शन
र्याय नहीं। ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म इन्हीं पर्यायोंको हीनाधिक रूपसे आवृत करते हैं और इनके क्षयोपशम और क्षयके अनुसार इनका अपूर्ण और पूर्ण विकास होता है। संसारावस्थामें जब ज्ञानावरणका पूर्ण क्षय हो जाता है तब चैतन्य शक्तिको साकार पर्याय ज्ञान अपने पूर्ण रूपमें विकासको प्राप्त होती है।
"पण्णवणिज्जा भावा भणतभागोणमिलप्पाणं । पण्णवणिजाणं पुण अर्णतभागो सुदणिवतो ॥"-गो. जीव. गा• १३३ ।