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________________ प्रस्तावना संसार के समस्त पदार्थ ज्ञेय अर्थात् ज्ञान के विषय होने योग्य है तथा ज्ञान पर्याय में ज्ञेय के जानने की योग्यता है, प्रतिबन्धक ज्ञानाधरण कर्म जब हट जाता है तब वस्तु के पूर्ण स्वरूप का भान १ शुद्ध कांच १ मुक्त जीव का चैतन्य, शुद्ध चिन्मात्र २ कलई लगा हुआ कांच-दर्पण (प्रतिबिम्ब रहित) २ सशरीरी संसारी जीवका चैतन्य, पर ज्ञेयाकार शून्य, दर्शनावस्था निराकार ३ सप्रतिबिम्ब दर्पण ३ ज्ञेयाकार, साकार, ज्ञानावस्था इस तरह चैतन्य के दो परिणमन-एक निर्विकार अबद्ध अनन्त शुद्ध चैतन्यरूप मोक्षावस्थाभावी और दूसरा शरीर कर्म आदि से बद्ध अविकारी सोपाधिक ससारावस्थाभावी। संसारावस्थाभावी चैतम्यके दो परिणमन एक सप्रतिविम्ब दर्पण की तरह ज्ञयाकार और दूसरा निष्प्रतिबिम्ब दर्पण की तरह निराकार । ज्ञेयाकार परिणमन का नाम ज्ञान तथा निराकार परिणमन का नाम दर्शन । तत्वार्थ राजवार्तिक में-जीवका लक्षण उपयोग किया है और उपयोग का लक्षण इस प्रकार दिया है "बाह्याभ्यन्तरहेतुद्वयसन्निधाने यथासंभवमुपलन्धुश्चैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोगः।"(त. वा. २८) अर्थात्-उपलब्धा को (जिस चैतन्य में पदार्थों के उपलब्ध अर्थात् ज्ञान करने की योग्यता हो) दो प्रकार के बाह्य तथा दो प्रकार के अम्यन्तर हेतुओं के मिलने पर जो चैतन्य का अनुविधान करनेवाला परिणमन होता है उसे उपयोग कहते हैं । इस लक्षण में आए हुए 'उपलव्धुः' और 'चैतन्यानुविधायी' ये दो पद विशेष ध्यान देने योग्य हैं। चैतन्यानुविधायी पद यह सूचना दे रहा है कि जो ज्ञान और दर्शन परिणमन बाह्याभ्यन्तर हेतुओं के निमित्त से हो रहे हैं वे स्वभावभूत चैतन्य का अनुविधान करनेवाले हैं अर्थात् चैतन्य एक अनु. विधाता द्रव्यांश है और उसके ये बाह्याभ्यन्तर हेत्वधीन परिणमन हैं। चैतन्य इनसे भी परेशुद्ध अवस्थामें शुद्ध परिणमन करनेवाला है। 'उपलब्धुः' पद चैतन्यकी उस दशाको सूचित करता है जबसे चैतन्यमें बाह्यभ्यान्तर हेतुओंसे निराकार या साकार होनेकी योग्यता होती है और वह अवस्था अनादि कालसे कर्मबद्ध होनेके कारण अनादिसे ही है। तात्पर्य यह कि अनादिसे कर्मबद्ध होनेके कारण चैतन्य कांच में वह कलई लगी है जिससे वह दर्पण बना है इसीमें बाह्याभ्याकार हेतुओंके अधीन निराकार और साकार परिणमन होते रहते हैं जिन्हें क्रमशः दर्शन और ज्ञान कहते हैं । पर अन्तमें मुक्त अवस्थामें जब सारी कलई धुल जाती है विशुद्ध निर्विकार निर्विकल्प अनन्त अखण्ड चैतन्यमात्र रह जाता है तब उसका शुद्ध चिद्रूप ही परिणमन होता है। ज्ञान और दर्शन परिणमन बाह्याधीन हैं। उसमें ज्ञान और दर्शनका विभाग ही विलीन हो जाता है। तत्त्वार्थ राजवार्तिक (१६) में घटके स्वपरचतुष्टयका विचार करते हुए अन्तमें घटज्ञानगत याकारको घटका स्वास्मा बताया है और निष्प्रतिबिम्ब ज्ञानाकारको परात्मा । यथा ___ "चैतन्यशक्तेद्वौं आकारौ शानाकारो शेयाकारश्च । अनुपयुक्तप्रतिबिम्बाकारादर्शतलवत् शानाकारः, प्रतिबिम्बाकारपरिणतादर्शतलवत् शेयाकारः।" इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि चैतन्यशक्तिके दो परिणमन होते हैं-ज्ञयाकार और ज्ञानाकार । राजवार्तिकमें ज्ञेयाकार परिणमन उसका साकार परिणमन है तथा ज्ञानाकार परिणमन निराकार । जब तक ज्ञेयाकार परिणमन है तब तक वह वास्तविक अर्थ में ज्ञानपर्यायको धारण करता है और नितेंयाकार दशामें दर्शन पर्यायको । धवला टीका (पु. १ पृ०१४.) और बृहद्भाव्यसंग्रह (पृ. ८१-८२) में सौद्धान्तिक दृष्टिसे जो दर्शनकी व्य ख्या की है उसका तात्पर्य भी यही है कि-विषय और विषयी सन्निपातके पहिले जो चैतन्यकी निराकार परिणति या स्वाकार परिणति है उसे दर्शन कहते हैं। राजवार्तिकमें चैतन्यशक्तिके जिस शानाकारकी चरचा है वह वास्तविकमें दर्शन ही है। इस विवेचनसे इतना तो स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि-चैतन्यकी एक धारा है जिसमें प्रतिक्षण उत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मक परिणमन होता रहता है और जो अनादि-अनन्तकाल तक प्रवाहित रहने वाली है। इस धारामें कर्मबन्धन शरीर सम्बन्ध मन इन्द्रिय आदि के सन्निधानसे ऐसी कलई लग गई है जिसके कारण इसका ज्ञेयाकार-अर्थात् पदार्थोंके जानने रूप परिणमन होता है। इसका ज्ञानावरण कर्मके क्षयापेशमानुसार विकास होता है। सामान्यतः शरीर सम्पर्क के
SR No.007279
Book TitleNyayvinischay Vivaran Part 01
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages618
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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