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________________ प्रस्तावना १७ स्वाद्वाद सुनय का निरूपण करनेवाली भाषा पद्धति है। स्यात्' शब्द यह निश्चित रूप से बताता है कि वस्तु केवल इसी धर्मवाली ही नहीं है उसमें इसके अतिरिक्त भी धर्म विद्यमान है। तात्पर्य यह कि अविवक्षित शेष धर्मों का प्रतिनिधित्व स्वात् शब्द करता है 'रूपवान् घटः वह वाक्य भी अपने भीतर 'स्यात्' शब्द को छिपाये हुए है। इसका अर्थ है कि 'स्यात् रूपवान् घटः' अर्थात् 'क्षु इन्द्रिय के द्वारा ग्राह्य होने से या रूप गुण की सत्ता होने से घड़ा रूपवान् है, पर रूपवान् ही नहीं है उसमें रख गन्धस्पर्श आदि अनेक गुण, छोटा बड़ा आदि अनेक धर्म विद्यमान हैं। इन अविरक्षित गुणधर्मों के अस्तित्य की रक्षा करनेवाला 'स्पा' शब्द है 'स्था' का अर्थ शायद या सम्भावना नहीं है किन्तु निश्चय है। अर्थात् घड़े में रूप के अस्तित्व की सूचना तो 'रूपवान्' शब्द दे ही रहा है पर उन उपेक्षित शेष धर्मों के अस्तित्व की सूचना 'स्वाद' शब्द से होती है सारांश यह कि 'स्वात्' शब्द 'रूपवान्' के साथ नहीं जुड़ता है, किन्तु अविवक्षित धर्मों के साथ वह रूपवान् को पूरी वस्तु पर अधिकार जमाने से रोकता है और कह देता है कि वस्तु बहुत बड़ी है उसमें रूप भी एक है । ऐसे अनन्त गुणधर्म वस्तु में लहरा रहे हैं। अभी रूप की विवक्षा या दृष्टि होने से वह सामने है या शब्द से उच्चरित हो रहा है सो वह मुख्य हो सकता है पर वही सब कुछ नहीं है । दूसरे क्षण में रसकी मुख्यता होने पर हर गीण हो जायगा और वह अविवक्षित शेप धर्मों की राशि में शामिल हो जायगा । 'स्यात्' शब्द एक प्रहरी है, जो उच्चरित धर्म को इधर उधर नहीं जाने देता। वह उन अविवक्षित धर्मों का संरक्षक है । इसलिए 'रूपवान्' के साथ 'स्यात्' शब्द का अन्वय करके जो लोग घड़े में रूप की भी स्थिति को स्पात् का शायद या संभावना अर्थ करके संदिग्ध बनाना चाहते हैं वे भ्रम हैं। इसी तरह 'स्यादस्ति घटः' वाक्य में 'घटः अस्ति' यह अस्तित्व अंश घट में सुनिश्चित रूप से विद्यमान है। स्थात् शब्द उस अस्तित्व की स्थिति कमजोर नहीं बनाता किन्तु उसकी वास्तविक आंशिक स्थिति की सूचना देकर अन्य नास्ति आदि धर्मो के सद्भाव का प्रतिनिधित्व करता है। सारांश यह कि 'स्पात्' पद एक स्वतन्त्र पद है जो वस्तु के शेषांश का प्रतिनिधित्व करता है। उसे डर है कि कहीं 'अस्ति' नाम का धर्म जिसे शब्द से उच्चरित होने के कारण प्रमुखता मिली है पूरी वस्तु को न हड़प जाय, अपने अन्य नास्ति आदि सहयोगियों के स्थान को समाप्त न कर जाय । इसलिए वह प्रति वाक्य में चेतावनी देता रहता है। कि हे भाई अस्ति, तुम वस्तु के एक अंश हो, तुम अपने अन्य नास्ति आदि भाइयों के हक को हड़पने की चेष्टा नहीं करना। इस भय का कारण है नित्य ही है, अनित्य ही है आदि अंशवाक्यों ने अपना पूर्ण अधिकार वस्तु पर जमा कर अनधिकार चेष्टा की है और जगत में अनेक तरह से वितण्डा और संघर्ष उत्पन्न किये हैं । इसके फलस्वरूप पदार्थ के साथ तो अन्याय हुआ ही है, पर इस वाद-प्रतिवाद ने अनेक मतवादों की सृष्टि करके अहंकार हिंसा संघर्ष अनुदारता परमतासहिष्णुता आदि से विश्व को अशान्त और आकुलतामय बना दिया' है। 'स्थात्' शब्द वाक्य के उस जहर को निकाल देता है जिससे अहंकार का सर्जन होता है और वस्तु के अन्य धर्मों के अस्तित्व से इनकार करके पदार्थ के साथ अन्याय होता है। 'स्पा' शब्द एक निश्चित अपेक्षा को बोसन करके जहाँ 'अस्तित्व धर्म की स्थिति सुद्द सहेतुक बनाता है वहाँ वह उसकी उस सर्वरा प्रवृत्ति को भी नष्ट करता है जिससे वह पूरी वस्तु का मालिक बनना चाहता है । वह न्यायाधीश की तरह तुरन्त कह देता है कि हे अस्ति, तुम अपने अधिकार की सीमा को समझो। स्वद्रव्य क्षेत्र काल-भाव की दृष्टि से जिस प्रकार तुम घट में रहते हो उसी तरह पर यादि की अपेक्षा 'नास्ति' नाम का तुम्हारा भाई भी उसी घट में है। इसी प्रकार घट का परिवार बहुत बड़ा है। अभी तुम्हारा नाम लेकर पुकारा गया है इसका इतना ही अर्थ है कि इस समय तुमसे काम है तुम्हारा प्रयोजन है तुम्हारी विवक्षा है। अतः इस समय तुम मुख्य हो । पर इसका यह अर्थ कदापि नहीं है जो तुम अपने समानाधिकारी भाइयों के सद्भाव को भी नष्ट करने का दुष्प्रयास करो। वास्तविक बात हो ३
SR No.007279
Book TitleNyayvinischay Vivaran Part 01
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages618
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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