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________________ तीय परिच्छेद [ ६१ भावार्थ - जघन्य अभव्यनितैं अनन्तगुणा आकृष्ट सिद्धनके अनन्तवें भाग जो समयप्रबद्ध ताका ज्ञानावरणादि रूप यथायोग्य हीनाधिक परमाणूनका बटवारा हो जाय सो प्रदेशबन्ध है ऐसा जानना ।। ५६ ।। करोति योगात्प्रतिप्रदेशौ स्थित्यनुभागसंज्ञौ । कषायतः स्थिति न बन्धः कुरुते कषाये, क्षीणे प्रशांते स ततोऽस्ति हेयः ॥५७॥ अर्थ - योग प्रकृति अर प्रदेशबन्धकों करै है, बहुरि स्थिति अर अनुभागपना बंधकों कषायतें करें है, बहुरि कषायकों क्षय होतमन्तें वा उपशम होतसन्तैं बन्ध स्थितिकौं न करे हैं तातें सो कषाय त्यागना योग्य है । भावार्थ - कषाय बिना केवल योगनत बन्ध होय है सो एक साताdearer स्थिति बन्ध है सो अनन्तर समय में खिर जाय है सो संसारका कारण नाहीं । बहुरि कषाय सहित के बन्ध होय है, सो स्थिति अनुभाग सहित होय है सो संसार का कारण है । तातैं कषाय त्यागना योग्य है ऐसा जानना ॥५७॥ स्वीकरोति स कषायमानसो, कर्म मुंचते च विरुषायमानसः । जन्तुरिति सूचितो, विधिबंधमोक्षविषयो विबंधनः ॥ ५८ ॥ अर्थ - कषाय सहित है मन जाका ऐसा पुरुष है सो कर्मकौं अंगी - कार कर है । बहुरि कषाय रहित है मन जाका ऐसा जीव है सो कर्मकौं त्यागे है; ऐसें बन्ध मोक्ष की विधि बन्धन रहित जे सर्वज्ञदेव तिनकरि कही है । भावार्थ - रागभावतें तो बन्ध है अर वीतराग भावतें मोक्ष है ऐसा सर्वज्ञका उपदेश है तातें राग त्यागि वीतराग होना योग्य है ॥ ५८ ॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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